Friday 1 July 2022

नुपुर शर्मा ने क्या गलत किया? हिंदू-मुस्लिम-राष्ट्रवादी-वामपंथी.... सभी के लिए कुछ सवाल


 राजस्थान का उदयपुर जिला

'एक हिंदू दर्जी को दो मुसलमान बेरहमी से मार देते हैं।' 


वैसे तो अपराधी और पीड़ित के धर्म को लेकर मैं सामान्य तौर पर बात नहीं करता लेकिन इस मामले में बात करना जरूरी हो जाता है। उस बेचारे की हत्या सिर्फ इसलिए हो जाती है क्योंकि उसका संबंध एक ऐसी सोशल मीडिया पोस्ट से था, जिसमें नुपुर शर्मा का समर्थन किया गया था। मैं यह लिखना नहीं चाहता था लेकिन इस ब्लॉग में मेरे कुछ सवाल हैं। ये सवाल इस देश के हर मुसलमान से, हर हिंदू से, हर राष्ट्रवादी से और हर उस शख्स से हैं जो खुद को इन तीनों की परिधि से बाहर रखते हैं। 


सबसे पहले बताइए कि नुपुर शर्मा ने क्या कहा था?

नुपुर शर्मा ने इस्लामिक मान्यताओं और पैगम्बर मुहम्मद साहब को लेकर एक कॉमेंट किया था, जिसे विवादित कहा जा रहा है। लेकिन उसमें विवादित क्या था, इसका जवाब कोई नहीं दे रहा।


नुपुर शर्मा ने जो कहा था, क्यों कहा था?

जिस वक्त नुपुर ने वह बयान दिया, उस वक्त टीवी डिबेट में एक जाहिल मौलाना ने शिवलिंग पर अभद्र टिप्पणी की थी। स्वाभाविक है कि वह 'दिव्य ज्ञान' मौलाना साहब को किसी मदरसे या जाकिर नाइक जैसे किसी मूर्ख ने दिया होगा, क्योंकि जो टिप्पणी उसने की थी, उसकी प्रामाणिकता किसी भी सनातन साहित्य में नहीं मिलती।


नुपुर शर्मा ने जो कहा था, वह 'दिव्य ज्ञान' उन्हें कहां से मिला था?

नुपुर शर्मा ने जो कहा, वे बात कई मौलाना अपने मजहबी प्रचार के दौरान कहते रहते हैं। कई इस्लामिक किताबों में उसका जिक्र है। 


क्या नुपुर ने जिस बात पर प्रतिक्रिया दी, उन्हें उस बात पर गुस्सा नहीं आना चाहिए था?

बिलकुल आना चाहिए था। लेकिन प्रतिक्रिया का तरीका वह नहीं होना चाहिए था, जो था। इसे एक उदाहरण से समझिए। आप पर कोई झूठा आरोप लगाए कि आपने उसके 5 रुपये चुरा लिए। आप क्या करेंगे? क्या आप यह कहेंगे कि तुम भी तो 10 रुपये चुराते रंगे हाथों पकड़े गए थे? या फिर आप उसके आरोपों का प्रमाण मांगते हुए खुद की बेगुनाही साबित करने की कोशिश करेंगे। अगर आप पहली वाली बात कहते हैं, तो इसका सीधा सा मतलब है कि आप उस झूठे आरोप को प्रामाणिकता दे रहे हैं, जो आप पर लगाया गया है।


यही नुपुर के केस में हुआ। नुपुर को बेहद शालीनता से उस मौलाना से पूछना चाहिए था कि उसे वह दिव्य ज्ञान कहां से मिला? फिर सनातन साहित्य के आधार पर तर्क देकर पूरे देश को बताना चाहिए था कि ये जाहिल किस तरह से लाइव डिबेट में बैठकर शिवलिंग/सनातन/हिंदुत्व की अनर्गल व्याख्या करके देश को बरगला रहे हैं।


मेरे जीवन में एक ऐसा शख्स आया, जिसने मुझे सैद्धांतिक और वैचारिक रूप से काफी मजबूती दी। मेरे और उनके बीच में घनघोर वैचारिक असहमतियां थीं, लेकिन उन असहमतियों के बीच होने वाली चर्चा में हमने कभी मर्यादा नहीं लांघी। वह मेरे संपादक थे, मैं एक कॉपी एडिटर। नौकरी सभी को प्यारी होती है, लेकिन विश्वास मानिए, मैं सिर्फ उस शख्स के लिए वहां था। हालांकि अब वह शौक जरूरत बन गया है लेकिन मुझे वह संवाद अच्छा लगता था। हमारे बीच 'ऊष्म संवाद' की शुरुआत कैंपस में हुए इंटरव्यू के दौरान ही हो गई थी। वह जब कुछ लिखते थे तो मैं उन्हें जवाब देता था। उनका 'भगवान' में विश्वास नहीं है और मैं घनघोर धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति हूं। वह कभी श्रीरामचरित मानस की किसी चौपाई पर प्रश्न खड़ा करते थे तो कभी मनुस्मृति की किसी सूक्ति पर। सार्वजनिक लिखते थे। 


जब वह श्रीराम के चरित्र पर सवाल उठाते थे, भारतीय परंपराओं पर सवाल उठाते थे तो मुझे बहुत गुस्सा आता था। मैंने भी उन्हें 'उन्हीं की भाषा में' जवाब देता था। वह ब्लॉग लिखते थे, मैं भी लिखता था। उनके तर्कों का जवाब देता था। अधिकांशतः वह सहमत नहीं होते थे, लेकिन हमारी चर्चा एक बिंदु पर समाप्त इसलिए हो जाती थी क्योंकि बात तथ्यों की होती थी। वह वक्त था और आज का वक्त है, लोग आज भी किसी ब्लॉग का लिंक फेसबुक पर मैसेज करके जब कहते हैं, 'भाईसाहब! अद्भुत जानकारी दी आपने, मैंने तो यह सोचा ही नहीं था।', तो लगता है कि उस वक्त में वक्त का जो निवेश अध्ययन में किया था, वह व्यर्थ नहीं था। कहने का मतलब यह है कि तरीका यह भी होता है।    

 

क्या नुपुर की प्रतिक्रिया पर गुस्सा आना चाहिए था?

बिलकुल! किसी को भी आएगा। उसे पता है कि जो कहा जा रहा है, वह गलत है, उसपर चर्चा होगी तो सवाल उठेंगे। वे सवाल सिर्फ उस बात पर नहीं, पूरी मान्यताओं पर होंगे, पूरे इस्लामिक इतिहास पर होंगे। 


क्या नुपुर के खिलाफ उस गुस्से को जिस तरह से प्रदर्शित किया गया, वैसे किया जाना चाहिए था?

बिलकुल नहीं! सभी की अपनी मान्यताएं हैं। उनमें से कुछ अंधविश्वास भी हो सकती हैं लेकिन किसी और को यह अधिकार नहीं है कि उनपर कटाक्ष करे। आप उनपर संवाद कर सकते हैं, लेकिन उन्हें गलत नहीं ठहरा सकते। यह उस समुदाय विशेष के अपने लोगों की जिम्मेदारी है, कि उनमें सुधार/बदलाव करें। नुपुर ने जो कहा था, उसपर आप शांतिपूर्ण विरोध कर सकते थे। कुछ गलत था तो कोर्ट जा सकते थे। लेकिन जो तांडव किया गया, उसे किसी भी कुतर्क के साथ सही नहीं ठहराया जा सकता।


और सबसे अहम सवाल

ऐसे मामलों में भाजपा शासित राज्यों में, खासकर उत्तर प्रदेश में जैसी बुल्डोजर वाली या पुलिसिया कार्रवाई हुई क्या वह गलत थी?

बिलकुल! कई लोगों का कहना है कि इसके लिए न्याय व्यवस्था है। बिलकुल है। न्यायपालिका का काम है न्याय देना। लेकिन मेरे अपने सिद्धांत हैं लेकिन वे पूरी तरह से व्यवहारिक हैं। माफी के साथ मैं सरकारी/प्रशासनिक कार्रवाई करने वाले हर उस शख्स से पूछना चाहूंगा कि क्या भारत की वर्तमान न्याय व्यवस्था से आप न्याय की उम्मीद करते हैं। मुझे लगता है कि हमारी अदालतें, सबूतों के आधार पर फैसला देती हैं, न्याय नहीं देतीं। सबूतों को खत्म किया जा सकता है, उनके साथ छेड़छाड़ की जा सकती है और फिर न्याय कहां से मिलेगा?


एक बुजुर्ग अपनी जिंदगी के 30-35 साल एक बिल्डर से कानूनी लड़ाई लड़ने में लगा देता है। किस लिए? अपनी एक बीघा जमीन के लिए। दिल पर हाथ रखकर बताइए, उसे न्याय मिलता है?

एक बुजुर्ग महिला रोती-बिलखती रहती है, उसके साथ कोई नहीं होता, और उसकी अपनी बहू बेटे के साथ मिलकर घर से निकाल देती है। ऐसी महिला को अदालत न्याय दे पाती है?

पुलिस की मिली भगत से किसी पर झूठी एफआईआर हो जाती है, उसकी पूरी जवानी कोर्ट के चक्कर लगाते खराब हो जाती है, अदालत उसे न्याय दे पाती है?

अरे और तो और... सैकड़ों निर्दोषों की हत्या करने वाले आतंकी को न्याय व्यवस्था के नाम पर हमारे टैक्स के पैसे से पाला जाता है, इसे आप न्याय कहते हैं?

माफ कीजिएगा, लेकिन यह व्यवस्था न्याय के नाम पर सिर्फ छलावा है।


सरकार की जिम्मेदारी है कि वह व्यवस्था बनाए रखे। हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं और लोकतंत्र की खूबसूरती यही है कि यहां 'एकरूपता' नहीं होती। असहमतियों का सम्मान होना चाहिए, लेकिन असहमति के नाम पर अराजकता पूरी तरह से गलत है। और मैं मानता हूं समाज को अराजक बनने से रोकने की जिम्मेदारी सरकार की है। चार लोगों के लिए आप 40 की उपेक्षा नहीं कर सकते। इसके लिए आप प्रेम से भी समझा सकते हैं और भय से भी।

इसका एक ही तरीका है, और वह श्रीरामचरित मानस में बताया गया है। दो पंक्तियों में इसका उत्तर है: 


भय बिनु होइ न प्रीति


तो क्या न्याय व्यवस्था को खत्म करके सब कुछ सरकारों पर छोड़ देना चाहिए?

बिलकुल नहीं! इससे भी अराजकता ही बढ़ेगी, बस वह सरकारी अराजकता होगी। न्याय व्यवस्था को खत्म करने की नहीं, उनमें सुधार की जरूरत है। जरूरत है कि 'तारीख पर तारीख...' वाली परंपरा को बदला जाए। न्याय देने वाले को न्याय की महत्ता का अहसास हो। जल्द से जल्द मामलों की सुनवाई हो। एक निश्चित समय में फैसला ना आने पर संबंधित, जज/अफसर पर कार्रवाई हो। जब तक यह नहीं होगा, कुछ नहीं बदलने वाला।

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