Sunday 3 July 2022

बेटी लक्ष्मी स्वरूपा ही क्यों होती है... सरस्वती या सीता जैसी क्यों नहीं?

 
बीते कुछ वक्त से हर शुक्रवार की शाम को मां पीतांबरा के दर्शन के लिए दतिया से निकल जाता था। नौकरी से छुट्टी लेना संभव नहीं था तो शुक्रवार की शाम को शिफ्ट खत्म होने के बाद करीब 8 घंटे का सफर करता था। शनिवार को सुबह करीब 1-2 बजे दतिया पहुंचने के बाद सुबह चार बजे माई के दर्शन करता था और फिर शनिवार और रविवार की नौकरी वहीं दतिया से ही होती थी। फिर रविवार को देर रात लखनऊ के लिए वापसी होती थी। बीते कुछ सप्ताह से लगातार यही क्रम चल रहा था। 


एक जुलाई 2022 को भी शुक्रवार का दिन था। पत्नी को अचानक से दोपहर में प्रसव के लिए अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। वैसे तो बच्चे भगवान देता है और वे प्रतिरूप भी उसी के होते हैं लेकिन मेरी और मेरी पत्नी की इच्छा थी की इसबार बेटी ही हो। शाम के 4-5 बजे होंगे। दतिया से महाराज जी का फोन आया। उन्होंने पूछा- निकल चुके वत्स? (पहली भेंट के समय से ही वह मुझे वत्स ही कहते थे।) मैंने उन्हें अपनी परिस्थिति बताई और कहा कि इसबार माई के दर्शन नहीं हो पाएंगे। उन्होंने कहा- ऐसा हो ही नहीं सकता। आपको दर्शन जरूर होंगे। मैंने फिर कहा- महाराज जी! इच्छा तो बहुत थी लेकिन क्या ही बताया जाए। उन्होंने कहा, 'वत्स! गुप्त नवरात्रि चल रहे हैं। माई दर्शन जरूर देंगी, इसे कोई नहीं टाल सकता। आप ध्यान रखिए।' रात 9:55 पर प्यारी सी बिटिया ने जन्म लिया। घर पर फोन करके बता ही रहा था कि महाराज जी की वेटिंग आने लगी। करीब दो मिनट के बाद कॉलबैक किया तो उनका पहला वाक्य था, 'आप माई के दर्शन करने नहीं आ पाए तो माई खुद आपको दर्शन देने और आपके साथ रहने आ रही हैं।' मैंने जवाब दिया, 'आ गईं।'


इसके बाद शुरू हुआ बधाइयों का सिलसिला। हजारों की संख्या सोशल मीडिया पर पोस्ट-मैसेज और लगातार फोन की बजती घंटियों के बीच एक बात ने बहुत कष्ट दिया। क्षमा के साथ कहना चाहूंगा कि बेटी के आने पर शुभकामनाओं के लिए मिले संदेशों में एक तिहाई से अधिक संदेशों से मेरे मानस को आपत्ति हुई। उन सभी की शुभकामनाओं के लिए हृदय से आभारी हूं लेकिन एक बार फिर क्षमा के साथ कहूंगा कि उन शुभकामनाओं में 'भारतीयता' नहीं थी। लोगों ने फोन पर, मैसेज में कहा कि 'मां लक्ष्मी आई हैं।' 


मेरा सवाल है कि 'मां लक्ष्मी' ही क्यों?

भारतीय सनातन परंपरा के 33 कोटि देवता लाखों-करोड़ों स्वरूप में धरा पर उपस्थित हैं। हर स्वरूप का एक संदेश है। कोई सृष्टि का पालक है तो किसी ने सृष्टि की व्यवस्था बनाए रखने के लिए संहारक की जिम्मेदारी उठाई है। कोई देवी समर्पण की प्रतिरूप हैं तो कोई धन-धान्य की। ऐसे में मेरी बेटी को लक्ष्मी स्वरूपा कहा जा रहा है। ऐसा कहने वालों में अधिकांश मुझे निजी तौर पर जानते हैं, मेरी प्राथमिकताएं भी समझते हैं। धन मेरी प्राथमिकता कभी नहीं रही, आज भी नहीं है और ईश्वर की कृपा रही तो आगे भी नहीं होगी। नौकरी के बाद बचने वाले समय का आधा हिस्सा मैं आज भी किताबों के साथ बिताता हूं। फिर भी मुझे लगता है कि कितनी भी कोशिश कर लूं, बहुत कुछ पढ़ना/समझना छूट जाएगा। लोग कहते हैं कि एक पिता अपने बच्चों के लिए वे सपने देखता है, जो वह खुद नहीं कर पाता है। मेरे साथ भी ऐसा ही है। मैं चाहता हूं कि मेरा बेटा/बेटी, मुझसे अधिक अध्ययन करें। लेकिन फिर जब कोई कहता है कि लक्ष्मी आई तो मुझे लगता है कि हमने प्राथमिकताएं बदल दी हैं।


भारत की परंपरा तो सर्वदा ज्ञान आधारित रही है। हमारी परंपरा में ज्ञान के बाद संस्कार आते हैं, और फिर आता है दायित्वबोध। धन को तो हमने प्रथम तीन स्थान में भी नहीं रखा है। फिर आज हमारी प्राथमिकताएं क्यों बदलीं? क्यों किसी बेटी के जन्म पर हम यह नहीं कहते हैं कि देखो वैदेही आई हैं। क्या आप अपनी बेटी में मां सीता के जैसा त्याग और प्रेम नहीं चाहते? हम यह क्यों नहीं कहते कि देखो मां वगेश्वरी आई हैं। क्या आप नहीं चाहते कि आपकी बेटी में ज्ञान का भंडार हो? ऐसे बहुत से स्वरूप हो सकते हैं, लेकिन हमारी मति के केन्द्र में धन आ गया है, मुझे आपत्ति इस बात से है। हमारा आंगन तपस्या, करुणा, ममता, दया और क्षमा जैसे दीपों से रोशन हुआ है, मुझे अपने आंगन में सिर्फ धन नहीं चाहिए था। मेरा विश्वास है, जिसे जितनी आवश्यकता होती है, और मन/कर्म द्वेष रहित होते हैं, ईश्वर उतना उपलब्ध करा देता है।


खैर, बेटी आई है तो एक पिता के तौर पर मेरा विश्वास क्या है, उसे पढ़िए...

तुम हमारी साधना की, परम तप की चेतना हो

दिव्य हो तुम विश्व दीप्ति, तुम प्रथम संवेदना हो

उस निशा की उस विजय का, हो परम उपहार हो तुम

स्वप्न पूर्णित किए तुमने, कामना विस्तार हो तुम


गतिशील जीवन की तरह, सतत तुम बढ़ती रहो

आत्म चेतन भाव भरकर, तुम सदा चलती रहो

लक्ष्य अनुपम हो सदा, स्थिर रहे संपूर्णता

दृढ़ रहे विश्वास तेरा, शून्य हो संकीर्णता  


तुम सनातन शक्ति जैसी, आत्मनिर्भर ही बनो

तुम जियो यह प्रण लिए, प्रतिकार बन तम से ठनो

उस दिवस में यह धरा, चरणों में तेरे झुक जाएगी

प्रेम पोषित अपराजिता जब, दिनकर को पथ दिखलाएगी 

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