Tuesday 19 July 2022

सावरकर पर सवाल उठाते हो? मतलब तुम गांधी को भी नहीं मानते हो

 27 फरवरी 2002, गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन के कोच एस 6 पर एक हमला होता है और कोच में बैठे कारसेवकों को जिंदा जला दिया जाता है। इस हमले में 59 लोगों की दर्दनाक मौत हो जाती है। गोधरा पुलिस मामले में 103 लोगों को गिरफ्तार करती है। केस चलता है, कुछ को फांसी की सजा होती है और कुछ को उम्रकैद की। लेकिन इस फैसले का सबसे अहम किरदार वे 67 लोग होते हैं, जिन्हें मामले में बरी कर दिया जाता है।


अब मेरा सवाल यह है कि क्या उन 67 लोगों और उनके परिवार से देश को संबंध खत्म कर लेना चाहिए? इस सवाल का जवाब सोचिए।

अगर आप भारत की न्याय व्यवस्था में विश्वास रखते होंगे, विश्वास छोड़िए, अगर आप भारत की संवैधानिक व्यवस्था का सम्मान ही करते होंगे तो आप इस सवाल का जवाब 'नहीं' में ही देंगे। लेकिन जरा रुकिए!


30 जनवरी 1948, महात्मा गांधी की हत्या हो जाती है। ठीक छह दिन बाद विनायक दामोदर सावरकर को गांधी की हत्या के षणयंत्र में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है। केस चलता है। फरवरी 1949 में सावरकर को बरी कर दिया जाता है। लेकिन करीब 73 साल बीत जाने के बाद भी क्या हर बात में देश के संविधान की दुहाई देने वाले लोग उस फैसले का सम्मान करने की हिम्मत जुटा पाए हैं?

अगर आप अपने दिल पर हाथ रखकर इस सवाल का जवाब पूछेंगे तो उत्तर मिलेगा - 'नहीं'


लेकिन क्यों?


हमारे देश के तथाकथित प्रगतिवादी, न्यायवादी, मानवतावादी, समाजवादी, बहुजनवादी, वामपंथी... ये सारे वाद आखिर सावरकर के नाम पर संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ अप्रत्यक्ष रूप से क्यों खड़े हो जाते हैं? 


क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि सावरकर का विचार उनके राष्ट्रवाद विरोधी अजेंडे में फिट नहीं बैठता? या फिर वाकई सावरकर में खामियां थीं?


एक मिनट! इस सवाल को पूछने का अधिकार क्या मैं या कोई और रखता है? और अगर यह सवाल पूछा जाना चाहिए तो क्या यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि क्या मोहनदास करमचंद गांधी में कोई खामी नहीं थी? क्या जवाहरलाल नेहरू ने अपने जीवन में जो कुछ भी किया, वह सब ठीक था?


मुझे लगता है कि हमें इस तरह के विमर्श से बचना चाहिए। ध्यान दें, मैं यह नहीं कह रहा कि उनमें खामियां नहीं थीं, मैं बस यह कह रहा हूं कि हमें इस तरह के सवाल नहीं उठाने चाहिए। लाख कमियां हों गांधी में लेकिन अपने देश के लोगों की हालत देखकर अगर कोई आजीवन एक कपड़े में रहने का व्रत ले लेता है तो बस उसका संकल्प ही है जो पूरे राष्ट्र का मार्ग प्रदर्शित करता है, उसका अलावा सब नगण्य है। खुद एसी कमरों से बाहर निकलकर चार कदम पैदल चलने तक की हिम्मत ना रखने वाले लड़के दो-दो आजीवन कारावास की सजा पाने के बाद भी मुस्कुराने वाले सावरकर पर सवाल उठाते हैं तो कष्ट होता है। गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति की पत्रिका 'अंतिम जन' के ताजा अंक में सावरकर के योगदान को गांधी के बराबर बताया गया है। अब कुछ लोग उसपर सवाल उठा रहे हैं, क्यों भाई?


चलो, आप गांधी को मानते हो। गांधी किसको मानते थे? मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को। आइए, इस पूरे विवाद का हल श्रीराम से जुड़ी एक कथा से समझते हैं:


माता सीता का हरण होने के बाद, भगवान राम को लंका तक पहुंचने के लिए उनकी वानर सेना जंगल को लंका से जोड़ने के लिए समुद्र के ऊपर पुल बनाने के काम में लग जाती है। भगवान राम पुल बनाने में उस गिलहरी के योगदान की तारीफ करते हुए उसे अपने हाथों में उठा लेते हैं और कहते हैं कि पुल बनाने में पूरी सेना के साथ बराबर का योगदान गिलहरी का भी है। 


क्या आपने कहीं ऐसा पढ़ा कि कभी ऐसा कहा गया हो कि गिलहरी का योगदान कम था? या नल-नील का योगदान अधिक था?


नहीं। ऐसा कभी और कहीं नहीं सुना-पढ़ा होगा।


किसी पुण्य काम में बस उद्देश्य देखा जाता है। यह नहीं देखा जाता कि किसने कम मेहनत की, किसने किस रास्ते से मेहनत की। यही बात बस गांधी और सावरकर के विवाद में समझनी है। गांधी हों या सावरकर, बिस्मिल हों या अशफाक उल्ला खां, दुर्गा भाभी हों या लक्ष्मीबाई, किसी के योगदान को कम नहीं कहा जा सकता। लेकिन यह बात बस उन्हें समझाई जा सकती है, जो समझना चाहते हों। कोई महापुरुष अथवा क्रांतिकारी किसी ‘दल’ विशेष का नहीं होता और महापुरुष वही होता है जो सामान्य व्यक्ति से बेहतर तरीके से समाज के प्रति स्वयं को समर्पित करे। हो सकता है उस ‘महापुरुष’ की विचारधारा हमसे 100 प्रतिशत ना मिलती हो, लेकिन क्या ऐसे में आप उससे 100 प्रतिशत असहमत हो सकते हैं?


आपका तर्क कुछ भी हो लेकिन इसका जवाब ‘नहीं’ में ही मिलेगा। समाज के विषय में सकारात्मक दृष्टिकोण से सोचने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में एक विशिष्ट विचार है। यदि आप किसी विचार से 100 प्रतिशत असहमत हैं तो इसका साफ तौर पर मतलब है कि आप उसका विरोध अज्ञानतावश अथवा द्वेषवश कर रहे हैं, और यदि आप किसी से 100 प्रतिशत सहमत होने का दावा कर रहे हैं तो इसका भी अर्थ यही है कि या तो आप अज्ञानी हैं अथवा अंधभक्त हैं। 


अब बात सावरकर की हो रही है, तो इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि सावरकर ही नहीं, देश की स्वतंत्रता के लिए सबकुछ न्योछावर करने वाले हजारों-लाखों क्रांतिकारियों के साथ हमारी सरकारों ने बहुत नाइंसाफी की है लेकिन आज बात करते हैं सावरकर की। और बात सावरकर की कर रहे हैं तो शुरुआत करते हैं उस शख्स से, जिसने देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ भारत की सेना खड़ी कर दी थी। 


वैसे तो अभी तक भारत के वीर सपूत नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मौत पर रहस्यात्मक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है लेकिन एक प्रचलित ‘तथ्य’ यह भी है कि आज से ठीक 71 साल पहले 18 अगस्त 1945 को तोक्यो जाते हुए उनका हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और इस हादसे में नेताजी की मौत हो गई थी। नेताजी की मौत से जुड़ा सच क्या है, यह एक अलग विषय है लेकिन देश के प्रति पूर्ण मनोयोग के समर्पित होकर ब्रिटिश सेना के सामने एक भारतीय सेना खड़ी करने वाले सुभाष बाबू के जीवन के जुड़े कुछ ऐसे अध्याय हैं जिनके बारे में शायद आपको जानकारी न हो। विश्व इतिहास में आजाद हिंद फौज जैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता जहां 1,50,000 युद्ध बंदियों को संगठित, प्रशिक्षित कर अंग्रेजों के सामने खड़ा किया गया हो।


सन् 1938 में सुभाष चन्द्र बोस, कांग्रेस के अध्यक्ष बने लेकिन अपने कार्यकाल के दौरान गांधी जी तथा उनके सहयोगियों के व्यवहार से दुखी होकर सुभाष चन्द्र बोस ने 29 अप्रैल 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद 3 मई 1939 को उन्होंने कोलकाता में फॉरवर्ड ब्लॉक अर्थात अग्रगामी दल की स्थापना की तथा भारत की स्वतंत्रता और अखंडता के लिए वह तत्कालीन नेताओं एवं क्रांतिकारियों से संपर्क करने लगे।


आपको जानकर हैरानी होगी कि सुभाष बाबू को अंग्रेजों के सामने एक भारतीय सेना खड़ी करने की प्रेरणा विनायक दामोदर सावरकर से मिली थी। 26 जून 1940 को सुभाष चन्द्र बोस, सावरकर के घर गए। वह सावरकर से मिलने मोहम्मद अली जिन्ना के कहने पर गए थे क्योंकि जिन्ना, सावरकर को हिंदुओं का नेता मानता था और खुद को मुस्लिमों का नेता कहता था। मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों के लिए जब अलग देश की मांग की गई तो सुभाष बाबू जिन्ना के पास गए। सुभाष बाबू चाहते थे कि मुस्लिम लीग देश के विभाजन की मांग न करे।


जिन्ना के पास पहुंचने पर जिन्ना ने सुभाष बाबू से पूछा कि वह किसकी तरफ से उससे बात करने आए हैं? इस पर सुभाष बाबू ने कहा कि वह फॉरवर्ड ब्लॉक के नेता के तौर पर बात करना चाहते हैं। सुभाष बाबू की इस बात पर जिन्ना ने कहा, ‘मैं मुसलमानों का नेता हूं और मुझसे कोई हिंदू नेता ही बात कर सकता है।’ जिन्ना की नजर में विनायक दामोदर सावरकर हिन्दुओं के नेता थे। जब सुभाष बाबू, विनायक दामोदर सावरकर से मिलने पहुंचे तो सावरकर ने सुभाष बाबू को महान क्रांतिकारी रायबिहारी बोस के साथ हुए पत्रव्यवहार के बारे में बताया। सावरकर ने उनको बताया कि रायबिहारी बोस, युद्धबंदी भारतीयों को एकत्रित करके एक सेना बनाने का प्लान बना रहे हैं। इसके बाद नेता जी जर्मनी गए। जर्मनी में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडियो की स्थापना की।


जर्मनी में सुभाष बाबू ने हिटलर से मुलाकात की। नेताजी भारत को आजाद करवाने के लिए दुनिया भर की मदद चाहते थे। हिटलर ने एक सीमा तक नेताजी की मदद भी की। वह सुभाष बाबू से बहुत प्रभावित हुआ। महान देशभक्त रासबिहारी बोस के मार्गदर्शन में नेताजी ने 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर के वैफथे नामक हॉल में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) का गठन किया। इस सरकार को जापान, इटली, जर्मनी, रूस, बर्मा, थाईलैंड, फिलीपींस, मलयेशिया सहित नौ देशों ने मान्यता प्रदान की। आजाद हिंद सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री के पद की शपथ लेते हुए सुभाष ने कहा, ‘मैं अपनी अंतिम सांस तक स्वतंत्रता यज्ञ को प्रज्वलित करता रहूंगा।’ लेकिन बात सिर्फ नेताजी तक ही सीमित नहीं है। 


एक राजनीतिक दल यह आरोप लगाता है कि पोर्ट ब्लेयर (अंडमान द्वीप) जेल से अपनी ‘काले पानी’ की सजा से रिहाई के लिए अंग्रेजों से क्षमा याचना की थी। हो सकता है ऐसा हो, लेकिन क्या ऐसा करने का उद्देश्य यह नहीं हो सकता कि सावरकर ने भी वही सोचा हो जो एक समय श्रीकृष्ण ने सोचा था, जिसकी वजह से वह रणछोड़ कहलाए। परिस्थिति का विवेचन एक सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ करें तो पाएंगे कि अपने-अपने समय में इन व्यक्तित्वों ने जो निर्णय लिए वे एकमात्र विकल्प थे। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं इसका एक कारण है, यदि हम स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान की सोच को उस दौर के क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ कर समझने का प्रयास करेंगे तो सामने आएगा कि उस दौर के अधिकतर क्रांतिकारी जान देने के पक्ष में नहीं थे। इसका कारण यह नहीं था कि वह जान देने से डरते थे, बल्कि इसका कारण यह था कि उनको पता था कि देश की स्वतंत्रता के लिए जीवित रहकर संघर्ष करना अतिआवश्यक है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के बीच का अंसेबली में बम फेंकने से पहले का संवाद है।


शहीद भगत सिंह से जुड़े साहित्य को पढ़ने पर पता लगता है कि जब भगत सिंह ने सांडर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लेने के बाद असेंबली में बम फेंकने का निर्णय लिया तब चंद्रशेखर आजाद ने पूरी योजना तैयार की कि किसी तरह और किन रास्तों से बम विस्फोट करने के बाद निकालकर भागा जा सकता है। उन्होंने यह योजना भगत सिंह को बताई लेकिन भगत सिंह ने इस पर अमल करने से साफ तौर से मना कर दिया। भगत सिंह गिरफ्तार होना चाहते थे। इस मुद्दे पर आजाद से भगत सिंह की गर्मागर्म बहस भी हुई। भगत सिंह का कहना था, ‘हम असेंबली में बम किसी की जान लेने के लिए नहीं फेंकने वाले हैं। हमारा उद्देश्य है, लोगों को जगाना और उस उद्देश्य को मैं गिरफ्तार होकर ज्यादा बेहतर तरीके से पूरा कर सकता हूं। केस चलेगा, जिरह होगी और उस जिरह हमें अपनी बात देशवासियों तक पहुंचाने का मौका मिलेगा।’


इस पर आज़ाद का कहना था कि केस का मतलब होगा मौत की सजा। इसके बाद भगत सिंह ने आजाद से कहा, ‘मैं जान देने के लिए ही गिरफ्तार होना चाहता हूं, मैं जीवित रहकर आजादी के आंदोलन में उतना योगदान नहीं दे पाऊंगा जितना मरकर दे सकता हूं।’ भगत सिंह बोले, ‘मेरी मौत कई भगत सिंह पैदा कर देगी।’ दोनों महान क्रांतिकारियों के बीच लंबी बहस हुई लेकिन भगतसिंह अपनी जिद के पक्के थे। आखिरकार आजाद को उनके आगे हार माननी पड़ी। फिर वही हुआ जो भगतसिंह चाहते थे। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि एक क्रांतिकारी संगठन से जुड़े व्यक्ति द्वारा जीवन को व्यर्थ नष्ट कर देने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। भगत सिंह तथा उनके साथी क्रांतिकारियों का उद्देश्य साफ था कि उनकी मौत एक नए आंदोलन को खड़ा करेगी लेकिन सभी क्रांतिकारी सिर्फ अपनी जान कुर्बान कर देते तो शायद आज हम स्वतंत्र देश में सांस नहीं ले रहे होते।  कुछ ऐसे ही विचार विनायक दामोदर सावरकर के भी बन गए थे। और यह विचार क्यों बने होंगे, इस बात का अंदाजा आप तब तक नहीं लगा सकते जब तक उस दौर की स्थितियों के विषय में अध्ययन न कर लें।


10 मई, 1907 को सावरकर ने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। सावरकर भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सन् 1857 की लड़ाई को भारत का ‘स्वाधीनता संग्राम’ बताते हुए लगभग एक हजार पृष्ठों का इतिहास लिखा। जून 1908 में तैयार हो चुकी पुस्तक ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857’ में सावरकर ने इस लड़ाई को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई घोषित किया था। इस पुस्तक से भारत में भगत सिंह सहित कई लोगों ने प्रेरणा ली।


हो सकता है कि अब कोई यह तर्क दे कि भगत सिंह तो सावरकर के हिंदुत्व के विरोधी थे। बिलकुल थे, क्योंकि उन्होंने सावरकर के हिंदुत्व को समझा नहीं था। जब सावरकर की पुस्तक भारत में कोहराम मचा रही थी तब भगत सिंह अपने शैशव काल में थे और सावरकर उस दौर में अंग्रेजों के गढ़ में रहकर मां भारती के चरणों की जंजीरों को तोड़ने के लिए प्रयास कर रहे थे। इसे आयु आधारित अनुभव कहें तो गलत न होगा। आगे जिस रूप में भगत सिंह ने सावरकर के हिंदुत्व को समझा, अगर मैं भी वैसा ही मान लूं तो मैं भी विरोध करूंगा लेकिन वास्तविकता यह है कि सावरकर के हिंदुत्व की व्यापकता उतनी सीमित नहीं जितना प्रचारित की गई। यह बिलकुल वैसा ही था जैसे एक 13-14 साल का छोटा सा बच्चा गांधी- गांधी करते हुए एक बुजुर्ग नेता के पीछे घूमता रहता है और फिर जब वह नेता अहिंसा के नाम पर अपने आंदोलन को वापस लेने की घोषणा करता है तो बच्चा उस नेता के रास्ते को नकार कर उसके विपरीत सिद्धांत आधारित रास्ते का चुनाव कर लेता है। इस विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि महात्मा गांधी ने अपने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को वापस लेकर कुछ गलत किया था। इसी आधार पर सावरकर को भी सिर्फ एक व्यक्ति के दृष्टिकोण के चलते गलत नहीं माना जा सकता।


आइए, सावरकर से जुड़े कुछ विषयों का विश्लेषण करते हैं:

क्या बंगाल विभाजन के दौरान 1905 में पुणे में अभिनव भारत संगठन द्वारा विदेशी कपड़ों की होली जलाना कोई सामान्य कदम था, उस समय जब हम गुलाम थे और सोशल मीडिया जैसी कोई चीज नहीं होती थी।


क्या यह झूठ है कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सावरकर की योग्यता, क्षमता और प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें छात्रवृत्ति दी थी।


क्या यह भी झूठ है कि भगत सिंह, राजाराम शास्त्री से कहा करते थे मुझे सावरकर जी के जीवन प्रसंगों, जैसे लंदन में रहते हुए मदनलाल ढींगरा को क्रांति की ओर प्रेरित करना, गिरफ्तारी के दौरान भारत लाए जाते समय जहाज से समुद्र में कूद पड़ऩा आदि ने बहुत प्रभावित किया है। (काशी विद्यापीठ के युवा राजाराम शास्त्री को लाला लाजपतराय जी ने द्वारका दास पुस्तकालय का प्रबंधक मनोनीत किया था। भगत सिंह से राजाराम के मैत्रीपूर्ण संबंध बन गये थे। राजाराम शास्त्री ने कई जगह अपने और भगत सिंह के संवाद का जिक्र किया है।)


क्या यह भी झूठ है कि सावरकर की प्रेरणा से ही जर्मनी में संपन्न होने वाली इंटरनैशनल सोशलिस्ट कांग्रेस में सरदार सिंह राणा और श्रीमती भीखाजी ने भारत का प्रतिनिधि बनकर वन्दे मातरम् लिखित ध्वज को फहराया।


क्या यह भी झूठ है कि वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में दो आजीवन कारावास की सजा पाने वाले एकमात्र क्रांतिकारी हैं।


क्या यह भी झूठ है कि सावरकर ने अंडमान जेल में रहते हुए, अंग्रेजों के कानूनों के जाल में उनको ही फंसाकर कैदियों को सामान्य सुविधाएं उपलब्ध कराई थीं।


क्या यह भी झूठ है कि ‘सवर्ण’ होते हुए भी दलितों को सम्मान दिलाने के लिए उन्होंने रत्नागिरी में प्रथम प्रयास किया।


क्या यह भी झूठ है कि अस्पृश्यता निवारण के लिए जमीनी स्तर पर कार्य करते हुए सावरकर ने अपने ब्राह्मणत्व कर्म का प्रतिपालन किया।


क्या यह भी झूठ है कि ‘भाषा शुद्धि’ यानी हिंदी तथा देवनागरी के संरक्षण हेतु उन्होंने प्रयास किए।


ऐसे बहुत सारे विषय हैं जो अटल जी द्वारा की गई सावरकर की व्याख्या को प्रमाणित करते हैं। स्वातंत्र्य वीर विनायक सावरकर के सिद्धांतों की वर्तमान समाज में एक विशिष्ट प्रासंगिकता इसलिए भी है क्योंकि आज भी कानूनों के आधार पर देश के प्रधान की तस्वीर के साथ छेड़छाड़ करने वाले को जेल हो जाती है और भारत की बर्बादी के नारे लगाने वाले जेल के सीकचों से बाहर ही रहते हैं। उन सिद्धांतों की प्रासंगिकता इसलिए भी है क्योंकि हमारे गांवों में आज भी ‘बिछड़े जनों’ को स्वयं से अलग ही समझा जाता है।


मेरा मानना है कि रानी लक्ष्मीबाई हों या रानी चेन्नमा, चन्द्रशेखर आजाद हों या भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां हों या बहादुर शाह जफर, जवाहर लाल नेहरू हों या महात्मा गांधी, सभी ने अपने स्तर पर कुछ ना कुछ तो अच्छा किया है। जो अच्छा है, जो सकारात्मक है, जो अनुकरणीय है, उसे आत्मसात करने अथवा उसकी प्रशंसा करने में क्या बुराई है? हिंदुत्व शब्द से परेशानी है तो स्पष्ट समझ लें कि ‘श्रीराम को पूजना हिंदुत्व नहीं बल्कि श्रीराम को आत्मसात करना हिंदुत्व है।’

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