मीडिया कॉर्पोरेट में नौकरी, कुछ लोग इसे मजबूरी की तरह लेते हैं और कुछ लोग अवसर की तरह। आप किसी भी रूप में लें, लेकिन अगर आपको कोई संस्थान नौकरी जैसी महत्वपूर्ण चीज दे रहा है तो वह आपके लिए किसी भी मनःस्थिति में खराब कैसे हो गया?
मीडिया की नौकरी तो अपने साथ 'दायित्वबोध' का भाव स्वतः लेकर आती है। 24 घंटे में कभी भी, कहीं भी जाना पड़ सकता है, खुद की परेशानियों से पहले यह सोचना पड़ता है कि हमें जिस क्षेत्र की जिम्मेदारी संस्थान की ओर से दी गई है, वहां की जनता तक समय पर सूचनाएं पहुंच जाएं, लेकिन आज के कॉर्पोरेट कल्चर में तो यह चीज रह ही नहीं गई है। पत्रकारिता के क्षेत्र में 'वीक ऑफ', 'पब्लिक हॉलि-डे', परिवार का इंश्योरेंस, ऑफिस में नाश्ता/खाना, शाम को पार्टी.... ये सब चाहिए, लेकिन फिर कहेंगे कि 'यहां पत्रकारिता कहां है?'
आज के नए बच्चों के साथ यह समस्या ज्यादा है। उन्हें कॉर्पोरेट वाली सारी सुविधाएं भी चाहिए और पत्रकारिता वाला फील भी। हर त्योहार में घर भी जाना है और खुद को पत्रकार कहने से भी गुरेज नहीं है। उन्हें पत्रकार के तौर पर अपनी पहचान भी चाहिए और काम के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति करनी है। हालांकि यह समस्या सिर्फ नए बच्चों में ही नहीं है, फील्ड के कई 'बुजुर्ग' स्ट्रिंगरों में भी है। डेस्क से कॉल जाए कि समय पर खबर भेजिए, तो कहते हैं कि हमारा घर परिवार भी है, डेस्क से डांट पड़े तो कहते हैं कि तुम्हारे खबरों के पेमेंट से हमारा घर नहीं चलता। यह प्रवृत्ति उन नए बच्चों और 'बुजुर्ग' स्ट्रिंगरों के लिए नुकसानदायक नहीं है, यह समाज के लिए कितनी नुकसानदायक है, इसका अंदाजा आज हम नहीं लगा पा रहे हैं। जिस पेशे पर समाज विश्वास करता है, उस पेशे के प्रति आप अपनी सुविधा के लिए कितना बड़ा विश्वसनीयता का संकट खड़ा कर रहे हैं और इसका दूरगामी परिणाम क्या होगा, इसका अंदाजा आप लगा भी नहीं पा रहे।
आप स्ट्रिंगर हों या संस्थान के स्थायी कर्मचारी, आप किसी भी संस्थान के साथ काम कर रहे हों, वहां की कार्य परंपराओं के प्रति आपके मन में 100 प्रतिशत सम्मान होना ही चाहिए।
ये सारी बातें मैं तब कह रहा हूं, जब खुद ये करके देख चुका हूं। मैं देश के सबसे बड़े मीडिया संस्थान में काम कर रहा था, कोविड की दूसरी लहर थी, पश्चिम बंगाल में चुनाव थे। पत्नी, भाई, पिता तीनों को कोविड हो रखा था, लेकिन मैं बंगाल में सड़कों पर घूम रहा था क्योंकि संस्थान ने जिम्मेदारी दे रखी थी। संस्थान ने भी कहा कि आना चाहो तो वापस आ जाओ, लेकिन नहीं गया। क्या परिवार के सदस्यों के प्रति मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं थी? बिलकुल थी, लेकिन भावनात्मक रूप से पहले मैंने व्यावहारिक होकर सोचा। मेरे घर पर होने से हकीकत में मैं क्या कर लेता। जो वहां रहकर करता, वो बंगाल में रहकर कर ही रहा था। बाकी तो ईश्वर वैसे भी वहां सब मैनेज कर ही रहा था। उसी संस्थान में जब लगा कि मेरे निजी सिद्धांतों के साथ वहां की कार्यपद्धति का टकराव हो रहा है तो सेकंड का दसवां हिस्सा खर्च किए बिना इस्तीफा दे दिया। मेरी भी EMI थीं, घर के खर्चे थे, बच्चे की फीस थी, कोई अतिरिक्त आय का श्रोत नहीं था, लेकिन दो बातें थीं कि सैद्धांतिक रूप से कुछ ऐसा नहीं करना है जो मन को गलत लगे और दूसरा यह पता था कि ईश्वर कुछ तो ठीक व्यवस्था करा ही देगा। अवसर भी मिला, सैलरी के लिहाज से, सुविधाओं के लिहाज से, हर लिहाज से पहले से बेहतर ही थी। लेकिन क्या वहां नौकरी छोड़ने के बाद मैं समाज में उसकी कमियां गिनाऊं? क्या संस्थान ने मुझे कुछ नहीं दिया? बाद वाले संस्थान ने पहले से बेहतर दिया तो क्या पहले वाले का जीवन में योगदान भूलकर उसे गलत कहूं।
अगर आपको लग रहा है कि किसी संस्थान की कार्यपद्धति से आपकी भावनाएं आहत हो रही हैं, उससे आपके उसूलों पर आंच आ रही है, तो उस संस्थान का साथ तत्काल छोड़िए, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि आपके लिए उस संस्थान ने जो कुछ किया, उसे भूलकर उसे गालियां देने लग जाओ।
मैंने अपना पहला संस्थान लंबे समय तक इस जिद में नहीं छोड़ा, क्योंकि मेरे संपादक से मेरे वैचारिक मतभेद थे। लेकिन इस वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने मेरे काम को कभी कमतर नहीं आंका, हमेशा आगे बढ़ने का अवसर दिया। मुझे यह स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं कि डिजिटल मीडिया में रिपोर्टर्स की टीम हैंडल करने की जिम्मेदारी मुझे जिस उम्र में मिली, उस उम्र और अनुभव में आज तक शायद ही किसी को मिली हो। और सिर्फ वही नहीं, वहां मेरे साथ काम करने वाले प्रत्येक सहकर्मी का मेरे व्यक्तिगत एवं पेशेवर व्यक्तित्व के उन्नयन में बड़ा योगदान है।
आज क्या हो रहा है? आप नई नौकरी खोजोगे, आप प्रतिभावान हो, नौकरी मिल भी जाएगी, लेकिन नई नौकरी पर जाने से पहले पुरानी नौकरी की खामियां बताओगे। अरे भई! इतनी ही खामियां थीं तो रुके क्यों? क्या अपने अंतःकरण की हत्या करके नौकरी कर रहे थे? और अगर उस नौकरी से मिलने वाला धन इतना महत्वपूर्ण था कि अपनी आत्मा, अपने सिद्धांतों की हत्या करनी पड़े, फिर तो आपको कोई नैतिक अधिकार ही नहीं है कि उस धन को देने वाले संस्थान के विषय में कुछ कह सको।
याद रखना! आप खुद को पत्रकार मानो, मीडिया मजदूर मानो, कॉर्पोरेट कर्मचारी मानो, या ईश्वर करे कि आप मीडिया मुगल हो जाओ, लेकिन अगर महीने में मात्र एक रोटी की भी व्यवस्था करने योग्य बनाने वाले अपने संस्थान के विषय में, मन के किसी छोटे से कोने में भी अमंगलकारी बात आ रही है तो मान लेना कि तुम्हारे संस्कारों में दोष है।
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