Monday 8 September 2014

प्रेम क्या है

मुझे “प्रेम” पर लिखना ना आया ,
क्योंकि “प्रेम” मुझमे कहीं ना समाया ,
मैंने जब भी “प्रेम” को गले लगाया ,
उसे अधूरा ही अपने अंदर सा पाया ।
मुझे “प्रेम” पर लिखना ना आया ,
क्योंकि “प्रेम” अक्सर मैंने अपने सवालों में पाया ,
मैंने जब भी “प्रेम” को गले लगाया ,
उसे पिघलता सा अपने अंदर कहीं पाया ।
मैंने अब “प्रेम” पर लिखने का मन बनाया ,
और हर प्रेमी युगल को अपनी कलम में कहीं समाया ,तब मेरी कलम में भी इतना “प्रेम” समाया ,
कि हर पढ़ने वाले के मन में भी “प्रेम” का अक्स था छाया ।
“प्रेम” एक एहसास है मन का ,
“प्रेम” एक तृष्णा है तन की ,
“प्रेम” कुछ ख्यालों की माया ,
जिसमे है पूरा विश्वास समाया ।
“प्रेम” एक गहरा सा सागर ,
“प्रेम” ही नदिया , “प्रेम” ही बादल ,
“प्रेम” है जीवन का सारांश ,“प्रेम” ना हो तो हर शब्द लगे कटाक्ष ।
“प्रेम” से जो रहे अछूता ,
उसको न मनु योनि में कोई गिनता ,“प्रेम” से ही जाँचे जाते पशु और मनुष्य ,
तभी तो “प्रेमी” का मन रहे सदा शुद्ध ।
“प्रेम” होता है दो आत्माओं का एक मिलन ,
“प्रेम” में अक्सर लगी होती है एक अगन ,“प्रेम” जितना सरल उतना ही विशाल ,
तभी तो “प्रेम” से ही होते सब मालामाल ।
मुझे “प्रेम” पर लिखना जैसे ही आया ,
हर शब्द को मेरे “प्रेम” का स्वरुप समझ आया ,
“प्रेम” अब मेरे तन-मन में इतना है छाया ,
कि कागज़ और कलम में भी मैंने “प्रेम” का सन्दर्भ है पाया ।
मुझे “प्रेम” पर लिखना अब आया ,
हर ग्रन्थ को मैंने अब “प्रेम” से सजाया ,
“प्रेम” कोई शब्द नहीं जिसे हम विशेषण से सज़ाएँ ,“प्रेम” तो “प्रेम” है ………
बस उसे समझें और आगे बढ़ते जाएँ ॥

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