Friday 11 September 2015

बैन लगाकर मीट की कालाबाजारी करना चाहती है महाराष्ट्र सरकार?



हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने जैन समुदाय के पर्यूषण पर्व और उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए मीट पर बैन लगा दिया। संभव है कि उसमें कहीं न कहीं उन्हें खुश करने का उद्देश्य हो लेकिन एक बात मुझे समझ नहीं आ रही कि ऐसे छोटे से विषय को राष्ट्रीय मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है। यदि किसी समुदाय विशेष की भावनाओं का सम्मान करते हुए सरकार कोई कदम उठाती है तो क्या उस विषय पर राजनीति करना आवश्यक है? क्या ऐसा संभव नहीं कि इन बेवजह के मुद्दों को छोड़कर राष्ट्रीय हित से जुड़ें विषयों को उठाया जाए।

मुझे आज की स्थिति देखकर हंसी आ रही है और हंसी आने का एक सामान्य सा कारण है कि ये सब उस देश में हो रहा है जिस देश में भाग्यलक्ष्मी माता के मंदिरों में लगी घंटियों को इस लिए रस्सी से बांध कर बंद कर दिया जाता है क्यों कि उनकी आवाज से एक समुदाय विशेष की नींद में बाधा आती थी। उस देश में जहां पर हर सप्ताह के एक विशेष दिन को हजारों स्थानों पर रास्ता बदलने को कह दिया जाता है। ये आखिर ऐसे विषयों पर राजनीति करके जताना क्या चाहते हैं? प्रदेश एवं देश की सरकार का एक तथाकथित हिंदूवादी सहयोगी राजनीतिक दल ये कहता है कि प्रदेश सरकार बैन लगाकर समुदाय विशेष को खुश करना चाहती है। अरे ठाकरे साहब, आप भी तो इस बैन का विरोध करके एक समुदाय विशेष को खुश करके तुष्टीकरण की राजनीति ही तो कर रहे हैं।

आज अगर स्वर्गीय बाला साहब जी स्वर्ग से शिवसेना, उद्धव ठाकरे और वर्तमान कार्यपद्धति को देख रहे होंगे तो निश्चित ही उनकी आखों से खून के आंसू निकल रहे होंगे। उन्होंने शिवसेना को इस लिए तैयार किया था जिससे कि देश की गिरती हुई राजनीति को एक कलाकार का हृदय संभाल ले, जिससे कि देश की राजनीतिक व्यवस्था से परिवारवाद का नाश हो और एक सामान्य व्यक्ति, सामान्य व्यक्तियों के लिए व्यवस्था चलाए। राजनीति, जिसका अर्थ था राज करने की नीति उसे पूर्ण रूप से परिवर्तित करने का श्रेय स्व. बाल ठाकरे जी को ही जाता है। उन्होंने राजकीय व्यवस्था को ठीक प्रकार से चलाने वाली नीति को राजनीति माना था। परिवारवाद का विरोध करने वाले बाल ठाकरे ने अपने पुत्र को शिवसेना में सबसे अधिक महत्व इसलिए दिया क्यों कि उन्हें लगता था कि यह मेरे साथ अधिक समय रहता है इस लिए मेरे विचारों को ठीक प्रकार से समझकर उसे आगे ले जाएगा, लेकिन आज हो कुछ और ही रहा है। शिवसेना एक सामान्य व्यक्ति का राजनीतिक दल न होकर ठाकरे परिवार का दल बन गया है। मूल विचारों और सिद्धान्तों के साथ समझौता करके सत्ता के सिहांसन के प्रति प्रेम स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। 

आज मीट पर बैन लगा तो शिवसेना और मनसे वाले सड़क पर दुकान लगा कर मीट बेचने लगे, कल को अगर सरकार वेश्यवृत्ति पर बैन लगा दे तो ये दोनों दलों के कार्यकर्ता क्या करेंगे?

लेकिन इसके बाद जो हुआ उसकी अपेक्षा नहीं थी। भाजपा की ओर से दिया गया तर्क मेरी समझ से बाहर है। सरकारी अधिवक्ता से जब न्यायालय ने पूछा कि मटन पर बैन लगा दिया लेकिन मछली, सी-फूड, फ्रोजन मटन व अंडों पर बैन क्यों नहीं लगाया, क्या उनको नहीं मारा जाता है?
तो हमारे माननीय अधिवक्ता महोदय के द्वारा जवाब में कहा गया कि मटन और मछली में फर्क है। मछली को जैसे ही पानी से बाहर निकाला जाता है, वह मर जाती है, उसे काट कर मारा नहीं जाता।
अरे अधिवक्ता महोदय मछली को पानी से क्या दाना खिलाने के लिए निकाला जाता है। मछली को पानी से निकालने का उद्देश्य यही होता है कि वह मर जाए और फिर उसका भक्षण किया जाए।

न्यायालय ने फिर अधिवक्ता महोदय से पूछा कि अहिंसा की बात करते हैं, पर ये क्या बात हुई कि कुछ दिन के लिए कत्ल और मटन की बिक्री रोक दें, बाकी दिन जारी रहे। क्या ऐसी भावनाएं एक दिन के लिए मन में आती हैं, अगले दिन चली जाती हैं?
सरकारी अधिवक्ता महोदय के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था।

न्यायालय ने पूछा कि मटन की बिक्री कैसे रोकेंगे? क्या पुलिस और म्युनिसिपल अधिकारी घर-घर जाकर तस्दीक करेंगे कि मीट न खाया जाए?
तो अधिवक्ता महोदय द्वारा उत्तर दिया जाता है कि हम लोगों के किचन में जा कर उन्हें रोकने नहीं जा रहे हैं। बैन सिर्फ जानवरों को काटने और सेल पर है। खाने पर नहीं है।
अरे अधिवक्ता महोदय यदि कोई अपने किचन में मीट बनाएगा तो वह लाएगा कहां से? क्या आपके कहने का तात्पर्य यह है कि बैन लगने के बाद कालाबाजारी करो।

मुझे समझ में नहीं आता कि इन जैसे अल्पज्ञानियों को अधिवक्ता बना कौन देता है? जिन लोगों के मस्तिष्क में किसी विषय को लेकर उद्देश्य ही स्पष्ट नहीं होता उन्हें सरकार का प्रतिनिधित्व करने के लिए क्यों भेज दिया जाता है। इनसे बेहतर विषय का स्पष्टीकरण तो वैचारिक आधार पर जुड़ा हुआ एक सामान्य सा कार्यकर्ता दे सकता है। ऐसे विषयों पर भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व को चिंतन की आवश्यकता है।

No comments:

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...