Wednesday 16 September 2015

ठाकुर रोशन सिंह : भारत मां का लाल

9 अगस्त 1925 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के पास स्थित काकोरी स्टेशन के पास जो सरकारी खजाना लूटा गया था उसमें ठाकुर रोशन सिंह शामिल नहीं थे। इसके बावजूद अंग्रेज सरकार ने उन्हें 19 दिसंबर 1927 को इलाहाबाद की नैनी जेल में फांसी पर लटका दिया गया।

36 वर्षीय ठाकुर रोशन सिंह का चेहरा काकोरी कांड में शामिल केशव चक्रवर्ती मिलती थी। अंग्रेज सरकार के लिए कोशव से बड़ी चुनौती रोशन थे। इस लिए झूठे सबूतों के आधार पर रोशन सिंह को फांसी दे दी गई। अंग्रेजी सरकार के द्वारा बंगाल की अनुशीलन समिति के सदस्य केशव चक्रवर्ती को खोजने का कोई प्रयास ही नहीं किया गया।

सी.आई.डी. के कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन पंडित राम प्रसाद बिस्मिल पर बार-बार यह दबाव डालते रहे कि वह किसी भी तरह अपने दल का संबंध बंगाल के अनुशीलन दल या रूस की बोल्शेविक पार्टी से बता दें, परंतु बिस्मिल टस से मस नहीं हुए। आखिरकार रोशन सिंह को दफा 120 'बी' और 121 'ए' के तहत पांच-पांच वर्ष की बामशक्कत कैद और 396 के तहत फांसी की सजा दी गई। इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय और वायसराय के यहां अपील भी की गई परंतु नतीजा वहीं निकला 'ढ़ाक के तीन पात।'

क्रांतिकारी ठाकुर रोशन सिंह का जन्म उत्तरप्रदेश के ख्याति प्राप्त जनपद शाहजहांपुर में स्थित गांव नबादा में 22 जनवरी 1892 को हुआ था। उनकी माता का नाम कौशल्या देवी और पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह था।

ठाकुर रोशन सिंह ने छह दिसंबर 1927 को इलाहाबाद नैनी जेल की काल कोठरी से अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था। उन्होंने पत्र में लिखा था 'मुझे एक सप्ताह के भीतर ही फांसी होगी। ईश्वर से प्रार्थना है कि आप मेरे लिए रंज हरगिज न करें। मेरी मौत खुशी का कारण होगी। मैं दो साल से बाल-बच्चों से अलग रहा हूं। इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला। इससे मेरा मोह छूट गया और कोई वासना बाकी न रही। मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्टभरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिंदगी जीने के लिए जा रहा हूं। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युद्ध में प्राण देता है उसकी वही गति होती है, जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले महात्मा मुनियों की।'

पत्र के अंत में उन्होंने अपना यह शेर भी लिखा-
'जिंदगी जिंदा-दिली को जान ऐ रोशन
वरना कितने ही यहां रोज फना होते हैं।'


फांसी से पहली की रात ठाकुर रोशन सिंह कुछ घंटे सोए। फिर देर रात से ही ईश्वर भजन करते रहे। प्रात:काल शौच आदि से निवृत्त हो यथा नियम स्नान-ध्यान किया। कुछ देर गीता पाठ में लगाया फिर पहरेदार से कहा, 'चलो'। पहरेदार हैरत से उन्हें देखने लगा कि यह कोई आदमी है या देवता। जाते जाते उन्होंने अपनी काल कोठरी को प्रणाम किया और गीता हाथ में लेकर निर्विकार भाव से फांसी घर की ओर चल दिए। उन्होंने फांसी के फंदे को चूमा फिर जोर से तीन बार वंदे मातरम का उद्घोष किया और वेद मंत्र का जाप करते हुए फंदे से झूल गए।

उनके अंतिम दर्शन करने और उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए इलाहाबाद के नैनी स्थित मलाका जेल के फाटक पर हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष, युवा और वृद्ध एकत्र थे । 19 दिसंबर 1927 को भात मां के इस सपूत को फांसी दे दी गई। जैसे ही जेल कर्मचारी उनका शव बाहर लाए वहां उपस्थित सभी लोगों ने नारा लगाया 'रोशन सिंह अमर रहें'। भारी जुलूस की शक्ल में शवयात्रा निकली और गंगा-यमुना के संगम तट पर जाकर रुकी, जहां वैदिक रीति से उनका अंतिम संस्कार किया गया।

फांसी के बाद ठाकुर रोशन सिंह के चेहरे पर एक अद्भुत शांति दृष्टिगोचर हो रही थी। मूंछें वैसी की वैसी ही थीं बल्कि गर्व से ज्यादा ही तनी हुई लग रहीं थी। उन्हें मरते दम तक बस एक ही मलाल था कि उन्हें फांसी दे दी गई, कोई बात नहीं। उन्होंने तो जिंदगी का सारा सुख उठा लिया परंतु बिस्मिल, अशफाक और लाहिड़ी जिन्होंने जीवन का एक भी ऐशो-आराम नहीं देखा, उन्हें इस बेरहम बरतानिया सरकार ने फांसी पर क्यों लटकाया?

नैनी जेल के फांसी घर के सामने अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह की आदमकद प्रतिमा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके अप्रतिम योगदान का उल्लेख करते हुए लगाई गई है। वर्तमान समय में इस स्थान पर एक मेडिकल कॉलेज स्थापित है। हमारा दुर्भाग्य है कि हमें अपनी पुस्तकों में इन वीरों के विषय में नहीं पढ़ाया जाता।
वन्दे भारती

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