एक बार की बात है। एक नवविवाहित जोड़ा दिल्ली में किराए के घर में रहने पहुंचा। पति का नाम आशीष और पत्नी का नाम शिप्रा था। अगली सुबह, जब आशीष और शिप्रा नाश्ता कर रहे थे, तभी शिप्रा ने खिड़की से देखा कि सामने वाली छत पर कुछ कपड़े फैले हैं। शिप्रा ने कहा कि लगता है सामने वाले घर में रहने वाले लोगों को कपड़े साफ करना भी नहीं आता, जरा देखो तो कितने मैले लग रहे हैं?
आशीष ने उसकी बात सुनी पर अधिक ध्यान नहीं दिया।
एक-दो दिन बाद फिर उसी जगह कुछ कपड़े फैले थे। शिप्रा ने उन्हें देखते ही अपनी बात दोहरा दी, 'कब सीखेंगे ये लोग कि कपड़े कैसे साफ़ करते हैं।'
आशीष सुनता रहा पर इस बार भी उसने कुछ नहीं कहा।
लेकिन अब तो ये आए दिन की बात हो गई, जब भी शिप्रा कपड़े फैले देखती भला-बुरा कहना शुरू कर देती।
लगभग एक महीने बाद सुबह के समय आशीष और शिप्रा नाश्ता कर रहे थे। शिप्रा ने हमेशा की तरह नजरें उठाईं और सामने वाली छत की तरफ देखा और देखते ही बोली कि अरे वाह! लगता है इन्हें अक्ल आ ही गई। आज तो कपड़े बिलकुल साफ दिख रहे हैं, जरूर किसी ने टोका होगा!'
आशीष ने कहा कि नहीं उन्हें किसी ने नहीं टोका।
शिप्रा ने आश्चर्य से आशीष को घूरते हुए पूछा कि तुम्हें कैसे पता?
तो आशीष ने जवाब दिया कि आज मैं सुबह जल्दी उठ गया था और मैंने इस खिड़की पर लगे कांच को बाहर से साफ कर दिया, इसलिए तुम्हें कपड़े साफ दिखाई दे रहे हैं।

वन्दे भारती
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