Saturday 31 October 2015

सोशल मीडिया का सच: एक विश्लेषण


दोस्तों, आज एक अजब दौर आ गया है। व्यक्तिगत बातों से लेकर सामाजिक चिंतन तक सब कुछ सोशल मीडिया पर ही हो रहा है। आज ट्विटर, फेसबुक और वाट्सऐप अपने प्रचंड क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है...

जिसने चार दिन पहले सोशल मीडिया चलाना शुरू किया है उससे लेकर कल तक सड़क पर लाठियां खाने वाला व्यक्ति भी सोशल मीडिया पर ही क्रांति करना चाहता है...
कोई बेडरूम में लेटे-लेटे गौहत्या करने वालों को सबक सिखाने  की बातें कर रहा है तो किसी के इरादे सोफे पर बैठे बैठे महंगाई बेरोजगारी या बांग्लादेशियों को उखाड़ फेंकने के हो रहे हैं। हंसी तो इस बात पर आती है कि सप्ताह में एक दिन नहाने वाले लोग स्वच्छता अभियान की खिलाफत और समर्थन कर रहे हैं।

अपने बिस्तर से उठकर एक गिलास पानी लेने पर नोबेल पुरस्कार की उम्मीद रखने वाले बता रहे हैं कि मां-बाप की सेवा कैसे करनी चाहिए। इतना ही नहीं जिन्होंने आजतक बचपन में कंचे तक नहीं जीते वे लोग बता रहे हैं कि भारत रत्न किसे मिलना चाहिए। जिन्हें गली में होने वाले क्रिकेट में इसी शर्त पर खिलाया जाता था कि बॉल कोई भी मारे पर अगर नाली में गई तो निकालना तुझे ही पड़ेगा वे आज कोहली को समझाते पाए जाते कि उसे कैसे खेलना है।

कुछ लोग वास्तव में बधाई के पात्र हैं जिन्होंने देश में महिलाओं की कम जनसंख्या को देखते हुए लड़कियों के नाम से नकली आईडी बनाकर जनसंख्या अनुपात को बराबर कर दिया है। जिन्हें अपने गोत्र का नहीं पता है वे लोग आज हिन्दुत्व के लिए जान देने की बातें कर रहे हैं। जो नौजवान एक बालतोड़ हो जाने पर रो-रो कर पूरे मोहल्ले में
हल्ला मचा देते हैं वे सोशल मीडिया पर देश के लिए सर कटा लेने की बात करते दिखेंगे। आप कितने भी तर्कों के साथ अपना विषय रखें लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जो सकारात्मक सोच ही नहीं सकते। आज भाजपा समर्थक अंधभक्त, आप समर्थक उल्लू तथा कांग्रेस समर्थक आतंकवादियों के समर्थक और सोनिया के चमचे करार दिए जाते हैं।

कॉपी पेस्ट करनेवालों के तो कहने ही क्या! किसी की भी पोस्ट चेंप कर एसे व्यवहार करेंगे जैसे साहित्य की गंगा उसके घर से ही बहती है और वो भी 'अवश्य पढ़े ' तथा 'मार्केट में नया है' की सूचना के साथ। टैगियों की तो बात ही निराली है। इन्हें ऐसा लगता है कि जब तक ये गुड मॉर्निंग वाले पोस्ट पर टैग नहीं करेंगे तब तक लोगों को पता ही नहीं चलेगा कि सुबह हो चुकी है । जिनकी वजह से शादियों में गुलाबजामुन वाले स्टॉल पर एक आदमी खड़ा रखना जरूरी होता है वे लोग आम बजट पर टिप्पणी करते हुए पाए जाते हैं। कॉकरोच देखकर चिल्लाते हुए दस किलोमीटर तक भागने वाले पाकिस्तान को धमका रहे होते हैं कि "अब भी वक्त है सुधर जाओ"।

दोस्तों, मैं यह नहीं कहता कि सोशल मीडिया पर लिखना नहीं चाहिए या लोगों को जागरुक नहीं करना चाहिए लेकिन मैं इतना जरूर चाहता हूं ये बातें सिर्फ लाइक और कमेंट पाने  तक ही सीमित ना रह जाएं। दोस्तों मैं 2010 से फेसबुक चला रहा हूं। उस समय मेरी एक एक पोस्ट पर 500-700 लाइक और 100-150 शेयर आते थे। लेकिन दोस्तों मैं उनमें से नहीं था कि सिर्फ फेसबुक तक ही सीमित रहता। दोस्तों मैं बस यह चाहता हूं कि कितने भी लाइक कमेंट बटोर लो लेकिन जब इस देश के स्वाभिमान की रक्षा के लिए 5 अप्रैल 2011 की तरह कोई 75 साल का युवा आंदोलनरत हो तो भले ही उसके साथ खड़े होने के लिए आप जंतर मंतर ना पहुंच पाना लेकिन दोस्तों मेरी तरह जहां भी रहना वहीं पर आंदोलन करते हुए लाठियां खाने से कभी पीछे मत हटना। दोस्तों, 16 दिसंबर 2012 जैसी घटना के बाद अगर दामिनी जैसी देश की कोई बेटी पुकारे तो अपने सारे लाइक कमेंट्स को छोड़ कर सत्ता के सिंहासन पर बैठे लोगों से उस बेटी के साथ हुई दुष्टता का हिसाब मांगने पहुंच जाना।

वंदे भारती

No comments:

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...