Wednesday 7 October 2015

कहां हो कवि कुमार?


कुछ समय पहले देश में व्यवस्था परिवर्तन के लिए एक आंदोलन का आगाज एक बुजुर्ग के द्वारा किया गया। आंदोलन को सफलता तो नहीं मिली लेकिन इस आंदोलन से एक राजनीतिक पार्टी का जन्म अवश्य हो गया। मुझे ध्यान है कि इस पार्टी  के दो सबसे बड़े चेहरे अरविंद केजरीवाल और कवि से राजनेता बने डॉ. कुमार विश्वास कहते थे कि देश के राजनेता बेवजह का वेतन ले रहे हैं। और तो और अरंविद केजरीवाल ने तो यहां तक कह दिया था कि इस देश तथा देशवासियों के हित को ध्यान में रखते हुए सत्ता में आने के बाद वह तथा उनकी पार्टी के विधायक जनता के द्वारा दिए गए टैक्सेज का दुरुप्रयोग नहीं करेंगे। उन्होंने कहा था कि वे राजनेता नहीं जनता के सेवक बनकर रहेंगे। साथ ही प्रचलित सुरक्षा को न लेते हुए जनता के साथ मिलकर जनता का कार्य करेंगे। मैं कुछ विषयों पर आम आदमी पार्टी के विरोध में हमेशा से रहा, लेकिन इन विषयों को लेकर मेरे विचार आम आदमी पार्टी से मेल खाते दिखाई देते थे। एक बार मैं कुमार विश्वास की एक रैली में उनके द्वारा दिए गए भाषण को सुन रहा था, उस भाषण में उन्होंने जनता को संबोधित करते हुए कहा था कि हमारे प्रत्याशियों को दिल्ली की जनता चुनाव लड़वाएगी। मुझे भी यह बात ठीक ही लगी कि जो जनता का प्रतिनिधित्व करने जा रहा है उनके चुनाव खर्च का वहन सम्मिलित रूप से जनता ही उठाए। क्यों कि मेरा मानना है कि यदि उद्योगपतियों के द्वारा पोषित लोग चुनाव लड़ेंगे तो निश्चित ही चुनाव जीतने के बाद वे जनता को लूट कर उन उद्योगपतियों का कर्ज चुकाएंगे ही, या फिर जनता के अधिकारों का हनन करते हुए उन उद्योगपतियों को गैरवाजिब लाभ पहुंचाएंगे।
इसके बाद डॉ. विश्वास ने कहा कि भारत मां की गोद इतनी बांझ नहीं हुई है कि इस पूरी दिल्ली से देश के लिए समर्पित 70 ईमानदार लोग भी न मिल सकें। आम आदमी पार्टी की ओर से जब चुनावी टिकटों की घोषणा की गई तो मुझे लगा कि आम आदमी पार्टी को दिल्ली के 70 सबसे ईमानदार लोग मिल ही गए। मैं अपने ह्दय की बात आप सभी से बांट रहा हूं, हलांकि मुझे लग रहा था कि ये प्रत्याशी उन पुराने राजनेताओं के सामने नहीं टिक पाएंगे लेकिन मन में बिलकुल भी शंका नहीं थी कि ये 70 लोग कभी स्वयं को देश से ऊपर समझेंगे या कभी स्वार्थ के वशीभूत हो जाएंगे।

 कुछ समय बीता और जुलाई का महीना शुरू हो गया, ये महीना शुरू होते ही शुरू हो गई आप के विधायकों की एक मांग। वेतन में बढ़ोतरी की इस मांग से मेरा मन थोड़ा सा द्रवित हो गया। मैं मानता हूं कि उन विधायकों में बहुत से ऐसे लोग भी हैं तो विधायक बनने से पहले अच्छा खासा वेतन पाते थे लेकिन आज कम वेतन पा रहे हैं। उन्हीं में से एक नाम है द्वारका से विधायक आदर्श शास्त्री का। आदर्श शास्त्री आम आदमी पार्टी में आने से पहले ऐपल कंपनी की साउथ एशिया सेल्स यूनिट के हेड थे। शास्त्री इन दिनों 'आप' सरकार की वाई-फाई योजना पर काम कर रहे हैं। नौकरी छोड़ने के समय उन्हें वेतन के रूप में 1.25 करोड़ रुपए मिलते थे। वेतन बढ़ोतरी की मांग के समर्थन में उन्होंने कहा, 'यह बेहद जरूरी है कि एक विधायक के सामने आने वाले रोजमर्रा की चुनौतियों को समझा जाए। मैं स्वागत करता हूं कि कोई आए और मेरा जीवन जी कर देखे कि क्या वह इतनी कम सैलरी में गुजारा कर पाता है, जितनी हम विधायकों को इस समय मिल रही है। आम आदमी पार्टी का जन्म साफ-सुथरी राजनीति के लिए हुआ है, ऐसे में जरूरी है कि हमारी भी जरूरतों को समझा जाए।' शास्त्री की तरह ही आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता और ग्रेटर कैलाश से विधायक सौरभ भारद्वाज राजनीति में आने से पहले एक अमेरिकी कंपनी में प्रॉजेक्ट मैनेजर के पद पर थे। नौकरी छोड़ने तक उन्हें 17 लाख रुपए सालाना वेतन मिलता था।

अब मैं आता हूं अपने मूल विषय पर, दिल्ली की जनता ने आम आदमी पार्टी के प्रत्याशियों का चुनाव इसी लिए किया था क्यों कि ये लोग कहीं न कहीं दूसरों से बेहतर दिखते थे। यही वे लोग थे जो अपने भाषण में कहते थे कि दोस्तों, देखो मैं देश को बदलने के लिए, राजनीति को बदलने के लिए इतने लाख की नौकरी छोड़ कर आया हूं। वो कहते थे मेरा लक्ष्य पैसा कमाना नहीं बल्कि सेवा है। वो बड़ी बड़ी कंपनियों का नाम लेकर देश सेवा का दंभ भरते थे। लेकिन आज ऐसा क्या हुआ कि उन्हें वेतन में बढ़ेत्तरी की मांग करनी  पड़ रही है। क्या देश प्रेम समाप्त हो गया? या फिर राजनीति की जिस गंदगी को साफ करने का वो दावा करते थे उसी में स्वयं भी फंस गए। और मैं कवि कुमार से कहना चाहता हूं कि मां भारती की कोख अभी इतनी बांझ नहीं हुई है कि ऐसे वीरों को जन्म देना बंद कर दिया हो जो राजनीति की परिभाषा को बदलने का जज्बा रखते हों। यदि आप के विधायक इतनी सैलरी से अपना खर्च न चला पा रहे हों तो इनसे कहिए कि जाएं और फिर से नौकरी कर लें। दिल्ली चलाने के लिए बहुत से युवा हैं जो वास्तविक रूप से ईमानदार भी हैं।

 और ये कोई बड़ी बात नहीं कि आप कई लाख की नौकरी छोड़कर राजनीति में आए। ऐसे विषय तो मन, इच्छा एवं समर्पण से जुड़े होते हैं। मैं भी अपने 20 कमरों के घर को छोड़कर 1 कमरे के मकान में रहने लगा हूं। मैं भी अपनी दादी के हाथ की रोटियों से दूर होटल की रोटियां खाने लगा हूं। कई लाख की नौकरी मैं भी कर सकता था, टॉपर था लेकिन यहां बस उतना ही मिलता है जितने में जी सकूं और तो और पिछले ढ़ाई साल में मैंने सिर्फ 26 घंटे अपने परिवार के साथ बिताएं हैं लेकिन मुझे इस बात का कोई दुःख नहीं है क्यों ये रास्ता मैंने स्वयं चुना है।









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