Tuesday 15 March 2016

काश! ये 'फर्जी राष्ट्रवादी' संघ को समझ पाते

कल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाह भैया जी जोशी ने कहा कि इस समय संघ अपनी सर्वोच्च स्थिति में है। निश्चित ही संघ अपनी सर्वोच्च स्थिति में है लेकिन देश की राजनीति अपने निम्नतम स्तर पर है। एक ओर जहां संघ पर कांग्रेस और वामपंथियों के द्वारा लगातार आघात होते रहते हैं तो वहीं दूसरी ओर राष्ट्रवाद को एक रंग विशेष और एक विशेष पूजा पद्धति से जोड़कर देखने वाले फर्जी राष्ट्रवादी देशभक्ति के प्रमाण पत्र बांटते रहते हैं। लोकतंत्र में आलोचना का विशिष्ट स्थान होता है लेकिन आलोचना जब अंधविरोध का रूप ले लेती है तो समाज पर एक नकारात्मक प्रभाव जाता है। कभी कोई संघ की तुलना आईएसआईएस से कर देता है तो कभी कोई भगवा आतंकवाद का राग अलापने लगता है। एक 1993 का दौर था और जब तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इसी संगठन के एक स्वयंसेवक को एवं उस दौर के विपक्षी नेता अटल बिहारी बाजपेई को जेनेवा में आयोजित यूएन सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का प्रमुख बनाकर भेजा था।

मुझे एक अन्य प्रसंग भी याद आता है। अभी कुछ समय पहले मैं संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक से चर्चा कर रहा था। चर्चा के दौरान मैंने उनसे पूछा कि भाईसाहब, आपकी दृष्टि से इस देश के तीन सबसे अच्छे प्रधानमंत्री कौन हुए? उन्होंने बिना कुछ सोचे उत्तर दिया, ‘लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा जी और अटल जी’। मुझे थोड़ी-सी हैरानी हुई क्योंकि मुझे अपेक्षा थी कि पहला नाम अटल जी का और कम से कम अंतिम नाम नरेन्द्र मोदी का अवश्य होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने उनसे इस उत्तर का विस्तृत कारण पूछा तो उन्होंने कहा, ‘छोटे कद और बड़ी इच्छाशक्ति वाले लाल बहादुर शास्त्री जी ने जिस तरह से पाकिस्तान को जवाब दिया था, वह अतुलनीय था। इंदिरा जी ने बांग्लादेश को स्वतंत्र कराने के लिए जिस प्रकार की इच्छाशक्ति का परिचय दिया था वह किसी सामान्य व्यक्ति के बस की बात नहीं थी और अटल जी ने समय को आपने स्वयं ही देखा होगा?’ उन्होंने आगे कहा, ‘कौन किस स्तर का राजनेता है यह समय तय करता है। इंदिरा जी ने आपातकाल लगाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कैद करने का प्रयास किया था लेकिन क्या मात्र इसके लिए हम उनके अन्य कार्यों को भूल जाएं?’ प्रचारक महोदय की सकारात्मकता देखकर मैं आश्चर्यचकित था। उस चर्चा के बाद मैंने बहुत सोचा कि क्या इस देश के वामपंथियों और कांग्रेसियों को संघ में कोई सकारात्मकता नहीं दिखती है? इस देश की राजनीति का दुर्भाग्य है कि कोई भगवा (केसरिया) रंग को आतंकवाद से जोड़ता है तो कोई हरे रंग को आतंकवादी बता देता है। कोई कहता है हरा तिलक लगाओ तो कोई किसी इस्लामिक इबादत पद्धति में विश्वास रखने वाले व्यक्ति को जबरदस्ती भगवा ध्वज पकड़ा कर देशभक्त होने का प्रमाण देता है।

मुस्लिम ASI को पीटा, भगवा झंडा हाथ में देकर कराई परेड, ‘जय भवानी’ के नारे भी लगवाए (खबर यहां पढ़ें) इस देश में देशभक्ति के पैमाने रंगों से तय होने लगे हैं। व्यक्तिगत तौर पर लाख बुराइयां होंगी संघ के स्वयंसेवकों में लेकिन क्या उन लोगों की आलोचनाओं के साथ अच्छे कामों की तारीफ नहीं होनी चाहिए?

क्या इस देश के वामपंथी और कांग्रेसी इस बात से इनकार कर सकते हैं कि आजादी के बाद जब पाकिस्तान से शरणार्थी भारत आ रहे थे तो संघ ने 3000 से ज्यादा राहत शिविर लगाए थे?

क्या कांग्रेसी 1962 का युद्ध भूल गए जब सेना की मदद के लिए देश भर से संघ के स्वयंसेवक सीमा पर पहुंचे थे और पूरे उत्साह से सेना की मदद की थी? क्या यह भी झूठ है कि स्वयंसेवकों के कार्य से प्रभावित होकर जवाहर लाल नेहरू ने 1963 में 26 जनवरी की परेड में संघ को शामिल होने का निमंत्रण दिया था? निमंत्रण दिए जाने की आलोचना होने पर क्या नेहरू ने नहीं कहा था, ‘संघ को निमंत्रण यह दर्शाने के लिए दिया गया है कि केवल लाठी के बल पर भी सफलतापूर्वक बम और चीनी सशस्त्र बलों से लड़ा सकता है’?

1965 के पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में क्या घायल जवानों के लिए सबसे पहले रक्तदान करने वाले और युद्ध के दौरान कश्मीर की हवाईपट्टियों से बर्फ हटाने का काम करने वाले संघ के स्वयंसेवक नहीं थे? क्या उस दौरान कानून व्यवस्था की स्थिति संभालने में मदद करने वाले और दिल्ली का यातायात नियंत्रण करने में मदद करने वाले संघ के स्वयंसेवक नहीं थे?

आज संघ पर आरोप लगता है कि वह अपने कार्यालय पर तिरंगा नहीं फहराता लेकिन क्या संघ के स्वयंसेवकों ने 2 अगस्त 1954 की सुबह दादरा एवं नगर हवेली की राजधानी सिलवासा में पुतर्गाल का झंडा उतारकर भारत का तिरंगा नहीं फहराया था? क्या नेहरू द्वारा गोवा में सशस्त्र हस्तक्षेप करने से इनकार करने के बावजूद जगन्नाथ राव जोशी के नेतृत्व में संघ के कार्यकर्ताओं ने गोवा पहुंच कर आंदोलन शुरू नहीं किया था?

क्या संघ के स्वयंसेवक भैरों सिंह शेखावत के विषय में सीपीएम ने यह नहीं कहा था कि राजस्थान में शेखावत प्रगतिशील शक्तियों के नेता हैं? क्या शिक्षा भारती, एकल विद्यालय, स्वदेशी जागरण मंच, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच जैसे संघ के समवैचारिक संगठन कोई अच्छा काम नहीं करते?

क्या 1971 में ओडिशा में आए भयंकर चक्रवात में, भोपाल की गैस त्रासदी में, 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों में, गुजरात के भूकंप में, सुनामी में, उत्तराखंड की बाढ़ में और करगिल युद्ध में संघ ने राहत और बचाव का कोई काम नहीं किया था? क्या संघ के समवैचारिक संगठन सेवा भारती ने जम्मू कश्मीर के आतंकवाद से अनाथ हुए 57 बच्चों को (38 मुस्लिम और 19 हिंदू) गोद नहीं लिया है? आज जल, जंगल और जमीन की लड़ाई का दावा करने वाले लोग बताएं कि क्या संघ का समवैचारिक संगठन भारतीय मजदूर संघ बिना मजदूरों के समर्थन के विश्व का सबसे बड़ा मजदूर संगठन बन गया?

यह सिर्फ एक पहलू है। इस देश के कुछ फर्जी राष्ट्रवादियों को सारे मुसलमान एक आतंकवादी दिखते हैं। क्या ऐसे तथाकथित हिंदू रक्षकों को शर्म नहीं आते जब वे इस देश को परमाणु संपन्न बनाने वाले एपीजे अब्दुल कलाम की कौम को आतंकवाद से जोड़ देते हैं?

क्या यह झूठ है कि 85 साल का एक बूढ़ा शेर, बहादुर शाह ज़फर जब अंग्रेजों की जेल (रंगून) में कैद था और अंग्रेजों ने उसके लिए दो पंक्तियां लिखवाकर भेजी थीं कि…
दमदमे में दम नहीं है, खैर मांगो जान की।
अब ज़फर! ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की।।

और क्या इसके जवाब में बहादुर शाह जफर ने वहीं जेल की दीवारों पर जवाब में नहीं लिखा था कि…
गाज़ियों में में बू रहेगी, जब तलक ईमान की।
तख्त-ए- लंदन तक चलेगी, तेग हिंदुस्तान की।

क्या भारत की स्वतंत्रता में 95 वर्ष के जीवन में से 45 वर्ष केवल जेल में बिताने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान (सीमांत गांधी)  का कोई योगदान नहीं था? क्या मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, हाकिम अजमल खान और रफी अहमद किदवई जैसे राष्ट्रवादियों ने भारत के लिए संघर्ष नहीं किया था? भारत के बाहर जाकर आजाद हिंद फौज के बारे में तो देश के फर्जी राष्ट्रवादी चीख-चीखकर कहते हैं कि उनके लिए कुछ किया जाए लेकिन फ्रांस में एक भूमिगत क्रांतिकारी रूप में काम करने वाले ग़दर पार्टी के सैयद शाह रहमत जिन्हें 1915 में फांसी दी गई, उनका देश में कोई योगदान नहीं था। क्या जौनपुर के सैयद मुज़तबा हुसैन के साथ बर्मा में भारत की आजादी की योजना बनाने वाले अली अहमद सिद्दीकी का कोई योगदान नहीं? क्या यह झूठ है कि इन दोनों को 1917 में फांसी पर लटका दिया गया था?

कितनी घटिया स्तर की राजनीति हो गई है इस देश की जिसमें सिर्फ नकारात्मकता है, जिसमें आलोचना नहीं सिर्फ विरोध है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि इस देश की एकता, अखंडता और एकात्मता के संरक्षण के लिए सभी विचारधाराएं एक हो जाएं? राष्ट्रवाद और आतंकवाद की कोई पूजा पद्धति नहीं होती। किसी भी पूजा पद्धति को मानने वाला या पूजा पद्धति में विश्वास न रखने वाला व्यक्ति राष्ट्रवादी हो सकता है बशर्ते वह राष्ट्र की अवधारणा में विश्वास रखते हुए राष्ट्रीय एकता के लिए कार्य करता हो। वह राष्ट्रवादी नहीं हो सकता जो देश में रंगों के आधार बनाकर एकरूपता चाहता हो। ठीक इसी प्रकार से हर वह व्यक्ति जो मानवता में विश्वास न रखता हो, निर्दोषों की हत्या करता हो वह आतंकवादी है।

इस देश में आज सबसे अधिक आवश्यकता है कि देश का प्रत्येक नागरिक अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी समझे और ऐसे राजनेताओं को सत्ता से दूर रखे जो देश तोड़ने वाली राजनीति करते हों, जो देश को रंगों में बांटते हों। कोई तथाकथित साध्वी जो इस देश के 69 प्रतिशत लोगों को अप्रत्यक्ष तौर पर गाली देती हो या शाही मस्जिद के इमाम से शाही इमाम बन जाने वाला कोई ऐसा व्यक्ति जिसे राष्ट्र की वंदना करना इस्लाम विरोधी लगता हो राष्ट्रवादी अथवा मुसलमान कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता।

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