Thursday 17 March 2016

स्वतंत्रता और स्वछंदता में अंतर समझे मीडिया

मीडिया के बिना वर्तमान समय में समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती लेकिन हाल ही में दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए विवादित कार्यक्रम के बाद भारतीय मीडिया दे धड़ों में बटा नजर आ रहा है। जेएनयू में भारत तेरी बर्बादी तक जंग रहेगी...जंग रहेगी...जैसे नारों को मीडिया का एक वर्ग अभिव्यक्ति और असहमति की स्वतंत्रता बता रहा है तो दूसरा वर्ग इसे राष्ट्रद्रोह की संज्ञा दे रहा है। इस विषय पर एक निष्पक्ष स्थायित्व लेने के लिए सर्वप्रथम हमें पत्रकारिता को समझना होगा। क्या पत्रकारिता का अर्थ यह होता है कि आप सही और गलत में कोई फर्क न करते हुए दोनों पक्षों का समर्थन करें अथवा पत्रकारिता का अर्थ यह होता है कि आप सही और गलत में फर्क करते हुए सही का समर्थन करें और गलत को पूर्ण दृढ़ता के साथ गलत कहें। मेरा मानना है कि दूसरा विकल्प ही पत्रकारिता का विशुद्ध रूप है। आप जब पत्रकारिता व्यवसाय होती जा रही है तो इसे एक मिशन के रूप में लेना संभव नहीं लेकिन क्या एक पत्रकार 'भारतीय' व्यवसायी नहीं हो सकता? क्या एक पत्रकार भारतीय पत्रकार नहीं हो सकता? क्या एक पत्रकार अपने व्यवसाय से पहले देश को नहीं मान सकता? क्या एक पत्रकार अपने व्यवसाय के मिशन के रूप में नहीं ले सकता? क्या एक पत्रकार किसी अन्य देश में जाएगा तो वह भारतीय से पहले पत्रकार होगा? ऐसे कई सवाल हैं जो आज हमारे सामने खड़े हैं।

मीडिया से इतर अगर राजनीतिक वर्गों की बात करें तो एक वर्ग कहता है कि देश के मजदूरों एक हो जाओ तो वह साथ में यह भी कहने लगता है कि आपको एक होने के लिए ‘राम’ को मानना बंद करना होगा। अगर कोई यह कहता है कि इस देश के सनातनियों एक हो जाओ तो साथ में अप्रत्यक्ष शर्त लगा दी जाती है कि इसके लिए आपको मुसलमानों का विरोध करना होगा। इसको अगर एक सामान्य पंक्ति में कहें तो हम आज ‘एकता’ नहीं अपितु ‘एकरूपता’ चाहते हैं। इस एकरूपता की विचारधारा का प्रभाव सभी तरह की विचारधाराओं पर है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम जैसे हैं उसी तरह रहकर मात्र भारतीयता के नाम पर एक हो जाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि इस देश में कुछ लोगों को इस बात पर शर्म आती है कि हमारे लोकतांत्रिक मंदिर, यानी संसद पर हमला करके इस देश की एकात्मता पर प्रहार करने वाले अफजल गुरु नाम के आतंकी को फांसी पर लटका दिया जाता है। और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भी बंट चुका है।

स्वतंत्रता किसी भी तरह के निरपेक्ष स्वच्छंदता का पर्याय नहीं हो सकती है। यदि ऐसा होता तो वह आत्महंता कहलायेगा, जैसा कि अनेको देशों में हुआ है कि वहां पर प्रजातंत्र आया जरुर लेकिन वह अधिक दिनों तक ठहर नहीं सका। सही अर्थो में स्वतंत्रता मिलने के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति के साथ दायित्व एवं कर्तव्य जुड़ जाते हैं। आत्मनियंत्रण एवं लगातार चौकसी के अभाव में स्वतंत्रता की परिकल्पना अधूरी रह जाती है। हम अपने- आपको आज स्वतंत्र्योत्तार युग के वासी मानते हैं। ऐसा लगता है, कि स्वतंत्रता अपने कालक्रम में एक बिंदु था, न कि कोई सतत अनुभव। ऐसा लगता है कि मानो पश्चिमीकरण की स्वाभाविक नियति की दिशा में हम लगातार अग्रसर होते जा रहे हैं हमारी इस यात्रा में राजनीतिक स्वतंत्रता एक महज पड़ाव था। यदि हम वर्तमान समय में भाषा, व्यवहार और वैचारिक दायरे मे रह कर सोचे तो स्वतंत्रता, स्वाधीनता आज लगभग बाहर ढकेल दी गई है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि स्वायत्ताता, आत्मगौरव और आत्मबोध की जगह हम अंग्रेजी राज के मात्र उत्ताराधिकारी बनकर रह गए हैं। वैश्वीकरण के दबाव में हम यह मान बैठे हैं कि पश्चिमी सभ्यता अकाट्य एवं अपरिवर्तनीय भविष्य है। राजनीतिक रूप से स्वाधीन होकर भी हम आज तक आत्म संशय से पूर्णतः ग्रस्त हैं, भारतीयता के बारे में हम अस्पष्ट, ज्ञान-विज्ञान के आयातक बन कर अपनी ही जड़ों से कटते चले जा रहें हैं। वर्तमान समय में गांधीजी का हिंद स्वराज हमारी रीति-नीति से हाशिये पर जा चुका है।

आज, बौद्धिक चर्चाओं में जिस अमूर्तीकृत भारतीय जीवन शैली पर विश्लेषण हो रहा है, वह साम्राज्यवादी आधार पर भी अप्रासंगिक है और केवल आरोपित दृष्टि को प्रोत्साहित कर रहा है। वह न ज्ञान से जुड़ा रहा, और न ही समाज से ऐसी अवस्था में कोई वैकल्पिक दिशा या राह ढूंढ़ा नही जा रहा है। स्वदेशी या देशज विचार उपयोगी हो सकते हैं लेकिन  इसके लिए जो संकल्प और इच्छाशक्ति की आवश्यकता है वह कहीं विरल होती जा रही है और जो भी प्रयास हो रहे हैं वे अधकचरे और बेमन से हो रहे हैं। वस्तुत: स्वतंत्रता अमूल्य है, इस धरती पर केवल मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जिसके लिए उसका शारीरिक और भौतिक जीवन अपर्याप्त है, क्योंकि वह अपनी बुद्धि के बल पर इसके पार झांकने की चेष्टा करता है और जीवन मे मूल्यों एवं आदर्शो का सृजन करता है। मानव जीवन मूल्यों और संभावनाओं का जगत है इसका प्रयोजन मनुष्य को राह दिखाना और  उसका मार्ग प्रशस्त करना है। मनुष्य आहार, भोजन, निद्रा, भय और मैथुन की पशुवृत्तिायों तक अपने को संकुचित न रखकर मूल्यों को ढूंढता है, उन मूल्यों को जिन पर जीवन को न्योछावर किया जा सके। मानव जीवन कुछ ऐसे ही स्पृहणीय लक्ष्यों एवं चाहतों के अधीन संचालित होता हैजिन पर किसी प्रकार की बंदिश नहीं होती है, सिवाय खुद अपने द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के। यदि प्रतिबंध न हों तो इस प्रकार की ईच्छाए मनुष्य को गलत राह पर ले जा सकती हैं। इस विवेक के न होन पर हम पशुवत आचरण करने लगते हैं और तात्कालिक भौतिक सुख पाने तक ही अपने आप को सीमित कर लेते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय यानी चोरी न करना, अपरिग्रह यानी आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना, शुचिता, इंद्रियनिग्रह, धैर्य और क्षमा जैसे गुणों को धर्म के प्राणिमात्र के लिए उपयुक्त या ठीक तरह से व्यवहार के अंतर्गत इसे शामिल कर मनुष्य को एक बड़ी जिम्मेदारी दी गयी है। धर्म व्यक्ति को अपने बारे में कम और दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करें या सामाजिक जीवन कैसे जिएं इसके बारे में अधिक बताता है। स्वतंत्रता कभी निरपेक्ष नहीं होती पर इसका गलत अर्थ लगा कर हम स्वच्छंद होते जा रहे हैं जिसके परिणामस्वरुप लूट-मार, हत्या, घोटालों, व्यभिचार, त्रासदियों, अत्याचारों, एवं हिंसा की असंख्य घटनाओं के रूप में हमारे सामने आए-दिन उपस्थित होते रहते हैं।

निश्चित ही विचारों को व्यक्त करने की आजादी संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार है, लेकिन संविधान के ही तहत इस आजादी पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने का राज्य को अधिकार भी दिया गया है। ऐसे में अदालत ने भी यह माना कि देश में शिक्षा और चेतना के मौजूदा स्तर को देखते हुए स्वतंत्रता को स्वच्छंदता में तब्दील होने की छूट नहीं दी जा सकती है। इसलिए संसद को कानून बनाकर इस बारे में स्थिति स्पष्ट करनी होगी। खासकर देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा, सामाजिक चेतना जैसे संवेदनशील पहलुओं को देखते हुए तकनीकी प्रसार को रोकने के बजाय इसे बेकाबू होने से रोकने के उपाय करना वक्त की मांग है।

प्रत्येक समाज का, राष्ट्र का एक तंत्र होता है जो धीरे-धीरे विकसित होता है और वही उसके शासन तंत्र का आधार बनता है। हमारे पास व्यवस्था का एक लंबा इतिहास है। उसी को समयानुसार आवश्यक  परिवर्तन करके सुधारना चाहिए। आज भी मानवीय संबंधों, प्रकृति के साथ सामंजस्य के सूत्रों, मितव्ययिता और संयम की जीवन शैली ही हमारे तंत्र का आधार हो सकती है। आज की गैर जिम्मेदार उपभोक्ता संस्कृति और अंधे कानून हमारे मार्गदर्शक नहीं हो सकते। हमारी जीवन शैली ही हमारी हो सकती है। वही हमें  गति प्रदान कर सकती है और वही हमारा धर्म हो सकती है।

अंग्रेजो के जाने के बाद स्वतंत्र बनते समय हमने इस नींव को भुला दिया।  स्वाधीनता का अर्थ है कि हम अपने नियंता और मालिक बनें। कानून के डंडे से संचालित जीवन की अपेक्षा स्वप्रेरित जीवन जिएं। यहीं आकर संस्कारों का महत्त्व पता चलता है। संस्कार हममें एक ऐसी आदत का निर्माण कर देते हैं कि स्वतः ही एक समरसता का जीवन जीने लगते हैं। लेकिन इस देश का मीडिया संस्कारों को तो व्यर्थ मानता है। आधुनिकता के नाम पर पाश्चायत्य सभ्यता के दुष्चक्र में मीडिया कुछ इस कदर फंसता जा रहा है कि यदि कोई भारतीय संस्कार और संस्कृति की बात करे तो वह उसे पिछड़ा और देश के विकास की गति में बाधक मान लेता है।

स्वतंत्रता आज स्वच्छंदता में बदल गई है। हमे पड़ताल करनी होगी कि जो देश कभी विश्व गुरु के नाम से पह्चाना जाता था, आज अनुकरण या स्पष्ट शब्दों में कहें तो अंधानुकरण करने वाला कैसे बन गया। हर संस्कृति की अपनी विशिष्टता होती है, साथ ही उसमें खामियां भी होती हैं, हमारी जिम्मेदारी है कि अगर हमें अनुकरण करना ही है तो विशिष्टता का करें ना कि खामियों को भी अपना मान लें। आज सिर्फ अन्धानुकरण हो रहा है और उसे नाम दिया जा रहा है आधुनिकता का, इससे अधिक दुर्भाग्य इस देश का हो ही नहीं सकता। किसी भी संस्कृति की विशिष्टाता होती है उसकी शिक्षा व्यवस्था, क्या हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था को ऐसा ढाला है की यह अनुकरणीय बने और हम अग्रज?
आज समय आ गया है कि आजादी के 69 साल के बाद हम थोड़ा सा पीछे मुड़ कर देखें और अपनी खामियों को चिन्हित कर उन्हें मिटाने का प्रयास करें। आज जरुरत है वैल्यु की जो आज कल प्राइस में परिवर्तित होती जा रही है। ये सब किसी के करने से नहीं होने वाला बल्कि हमें खुद अपने निजी और सामजिक स्तर पर ये सब करना होगा तभी उम्मीद जग सकती है।

आज स्वच्छंदता हमारी पूरी की पूरी व्यवस्था में व्याप्त है चाहे वह नौकरशाह हों या मिडिया ,चाहे न्यायपालिका हो या समाज आदि। आज कोई भी किसी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करना चाहता है चाहे वह कानून का हो या राज व्यवस्था का। राजनीति तो पहले ही दागदार हो चुकी है, वे दिन चले गए जब राजनीतिज्ञों को देख कर स्वतः ही मन में सम्मान का भाव उत्पन्न हो जाया करता था कि अमुख नेता इतना पढ़ा-लिखा है ,अमुख इतना बड़ा समाज सुधारक है आदि, पर आज तो ऐसी छवि वाला कोई नेता दिखता ही नहीं, सभी एक दूसरे पर लांछन लगाने में व्यस्त दिखते हैं और ये दिखने की कोशिश करते हैं की उनका विरोधी देखो कितना नीचे गिर गया है। इस व्यवस्था को बनाने में और पोषित करने में कहां आ गए हम? जिस देश का इतिहास इतना गौरवशाली था ,जहां का भूगोल आज भी सोना उगलने की स्थति में है फिर नागरिक शास्त्र में कैसे चुक गए कि ऐसी व्यवस्था खड़ी हो गयी? जिसकी भाषा (संस्कृत) को सभी भाषाओं की जननी कहा जाता था, आज उसके विषय में बात करने पर भगवाकरण का आरोप लगने लगता है।

स्वतंत्रता और स्वच्छंदता को अक्सर एक मानने की भूल कर दी जाती है और इसी का परिणाम है कि स्वतंत्रता के नाम पर कई बार अतार्किक मांग उठायी जाती है। स्वतंत्रता का पक्षधर उदारवाद व्यक्ति को विवेकशील प्राणी मानता है और उसे अपने बारे में स्वयं निर्णय करने तथा विकास-मार्ग स्वयं चुनने का अधिकार देने की बात करता है। इस बात में कोई शक नहीं है कि व्यक्ति विवेकशील प्राणी है परन्तु उसकी विवेकशीलता की सीमा है अर्थात् व्यक्ति पूर्ण विवेकशील नहीं है। इसी कारण व्यक्ति-व्यक्ति की सोच और मान्यता में अंतर नजर आता है, जो कि कई बार एक-दूसरे के विपरीत भी हो जाता है। अतः स्वतंत्रता की मात्रा का सीमांकन जरुरी हो जाता है। स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध जरुरी है ताकि किसी एक व्यक्ति की स्वतंत्रता अन्य की स्वतंत्रता में बाधक न हो जाय। वहीं स्वच्छन्दता में प्रतिबंधों का कोई स्थान नहीं होता, अतः स्वच्छन्दता निरंकुश रूप धारण किए हुए है। वहीं स्वतंत्रता मानवता के हित में कुछ प्रतिबंधों को आरोपित करती है, जिससे कि एक व्यक्ति की स्वतंत्रता का अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता से कोई संघर्ष न हो

हाल ही में हुए जेएनयू प्रकरण में एक बात तो साफ हो गई है कि राजनीतिक विचार परिवारों की तरह मीडिया भी विचारों में स्थायित्व नहीं ला पा रहा है। कोई चैनल वैचारिक प्रतिबद्धता से इस कदर ग्रसित है कि वह फर्जी विडियो को बिना जांच किए टीवी पर चला देता है तो कोई चैनल देश की संसद पर हमला करने वाले आतंकी के समर्थन में लगने वाले नारों को अभिव्यक्ति की आजादी कहता है। इस देश की संसद में कोई व्यक्ति नहीं बैठता बल्कि इस देश की संसद में जनमत बैठता है। वह जनमत जिसे मैं और आप चुनते हैं, आपने जिसको अपना वोट दिया हो भले ही वह व्यक्ति उस संसद में ना पहुंचा हो लेकिन किसी अन्य की पसंद तो वहां बैठती है। क्या पत्रकारिता का यह दायित्व नहीं है कि वह देश के जनमत का सम्मान करे और देश विरोधी नारे लगाने वालों के खिलाफ एक साथ खड़ी हो? क्या इस प्रकार की पत्रकारिता कहीं न कहीं राष्ट्रविरोधी तत्वों को संरक्षण देने का काम नहीं कर रही है? क्या फर्जी विडियो चला कर टीआरपी बटोरने वाले चैनल पत्रकारिता की विश्वस्नीयता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रहे?

देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में जब छात्रों के वर्ग ने कहा कि ‘अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा है…’ मुझे समझ नहीं आया कि यहां कातिल कौन है? देश का उच्चतम न्यायालय, देश का राष्ट्रपति, अफजल की फांसी के लिए अपने शहीद पति को मरणोपरांत दिए गए शौर्यता के प्रमाण पत्रों को लौटाने की बात करने वाली वे वीरांगनाएं, वे पुलिस वाले जिन्होंने अफजल को पकड़ा अथवा देश का हर एक वह नागरिक जो सड़क से लेकर संसद तक अफजल के कुकृत्य के लिए फांसी की मांग कर रहा था? ऐसे में जब कोई मीडिया संस्थान इस प्रकार के नारे लगाने वालों का अभिव्यक्ति और असहमति की स्वतंत्रता के नाम पर समर्थन करता है तो क्या उस संस्थान का कृत्य राष्ट्रविरोध की श्रेणी में नहीं आता।

देश के कुछ मीडिया संस्थानों का कहना है कि बिना प्रमाण के भारत की बर्बादी के नारे लगाने के मामले में एक निर्दोष को गिरफ्तार कर लिया गया। उनका मानना है कि यह मानवता विरोधी कदम था। गिरफ्तार किए गए लोगों तथा उनकी विचारधारा वाली राजनीतिक पार्टियों का स्पष्ट तौर पर कहना है कि अफजल गुरू की फांसी 'न्यायिक हत्या' थी। यह कैसी मानवता है कि आप एक कलबुर्गी की हत्या पर अवार्ड वापसी का दौर शुरू कर देते हैं लेकिन देश के दिल, दिल्ली में खड़ी देश की संसद पर हमला करके दिल्ली पुलिस के पांच जवानों, सीआरपीएफ की एक महिला कर्मी और 2 सुरक्षा गार्डों के हत्यारे के समर्थन में नारे लगाते हैं। क्या अफजल का कृत्य मानवता विरोधी नहीं था?

एक ऐतिहासिक प्रसंग के माध्यम से इस विषय को स्पष्ट करना चाहूंगा। विभीषण रावण के राज्य में रहने वाला एक ऐसा व्यक्ति था जिसके सहयोग के बिना श्रीराम को सीता नहीं मिलतीं, जिनके सहयोग के बिना लक्ष्मण जीवित नहीं बचते, जिसके सहयोग के बिना रावण के राज्य की गोपनीय बातें हनुमान-श्रीराम को पता नहीं लगतीं। एक लाइन में कहें तो ‘श्रीराम का आदर्श भक्त’… इतना कुछ होते हुए भी आज उस घटना के हजारों सालों के बाद भी किसी पिता ने अपने बेटे का नाम ‘विभीषण’ नहीं रखा। जानते हैं क्यों?
क्योंकि इस संस्कृति में आप राम भक्ति करें या ना करें कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन अगर राष्ट्रभक्ति नहीं की तो कभी माफ नहीं किए जाएंगे। आज एक सामान्य व्यक्ति से अधिक आवश्यक मीडिया के लिए है कि वह अधिकारों के साथ-साथ दायित्व को भी समझे। आज आवश्यक है कि मीडिया समाज, राष्ट्र और मानवीयता के प्रति अपनी जिम्मेदारी स्वयं सुनिश्चित करे। आज आवश्यक है कि मीडिया समाज को स्वतंत्रता और स्वछंदता के बीच के अंतर के विषय में जानकारी दे।

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