Wednesday 13 April 2016

पद की गरिमा देखें शंकराचार्य, साईं का चढ़ावा नहीं

सनातन परंपराओं के सर्वोच्च पद की मान-मर्यादा को तार-तार करते हुए द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने कुछ ऐसा कह डाला जो न ही सनातन मूल्यों से मेल खाता है और न ही भारतीय परंपरा से। स्वामी स्वरूपानंद ने कहा कि महाराष्ट्र में साईं बाबा की पूजा करने से सूखे के हालात आए हैं। उन्होंने कहा, ‘साईं बाबा फकीर थे और एक फकीर की पूजा करने से इस तरह का विनाश होना तय है। जब अयोग्य लोगों की पूजा होने लगती है और उन्हें ईश्वर बनाया जाता है तो प्रकृति अपना प्रकोप दिखाती है। महाराष्ट्र में भीषण सूखा उसी प्रकोप का नतीजा है।’
क्या सच में सनातन परंपरा यही मानती है? बिल्कुल नहीं। श्रीराम कौन थे? श्रीकृष्ण कौन थे? क्या उनका अपना व्यक्तिगत जीवन नहीं था? सनातन संस्कृति ‘अहं ब्रह्माऽस्मि’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं तथा ‘तत्त्वमसि’ यानी वह ब्रह्म तुम्हीं हो, में विश्वास रखती है। यदि हम श्रीराम और श्रीकृष्ण को उनके सद्कर्मों के आधार पर पूज्य मान सकते हैं तो क्या समस्त मानव जाति को शांति एवं सद्भावना का संदेश देने वाले एक फकीर का सिर्फ इसलिए विरोध करना उचित होगा कि उसने किसी अन्य पूजा पद्धति में विश्वास रखने वाली परंपरा को आत्मसात किया।
गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं कहते है, ‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो’ अर्थात मैं (ब्रह्म) सभी प्राणियों के दिल में बसता हूं। क्या वह ब्रह्म इस धरती पर रहने वाले प्रत्येक जीव में नहीं है? सनातन परंपरा तो ‘नाग’ को भी दूध पिलाने में विश्वास रखती है क्योंकि उसमें भी ब्रह्म है तो क्या किसी मानव की पूजा करने से सूखा पड़ने जैसी बातें कहना उचित है? व्यक्तिगत रूप से मैं किसी मंदिर में जाकर पैसा चढ़ाने अथवा किसी पुजारी के चरणों में धन रखने में विश्वास नहीं रखता। मेरा मानना है कि जो पैसा हम मंदिर में भगवान के नाम पर चढ़ाते हैं अगर उस पैसे से किसी गरीब को एक समय का भोजन करा कर तृप्त कर दिया तो ईश्वर तृप्त हो जाएगा। मैं संपूर्ण विश्व में सनातन परंपरा की पताका फहराने वाले स्वामी विवेकानंद के उस विचार का अनुसरण करता हूं जिसका आधार था, ‘मैं उस ईश्वर का सेवक हूं जिसे नादान लोग मनुष्य कहते हैं।’ इतना कुछ होते हुए भी मैं मंदिर जाता हूं, कुछ मांगने के लिए नहीं, अपितु मन की शांति के लिए। मैं शिरडी भी जाता हूं और मथुरा भी जाता हूं, मैं कहां जाऊंगा और किसका पूजन करूंगा, यह तय करने का अधिकार सिर्फ मेरा है।
आदि शंकराचार्य ने इस भारत को एक करने के लिए तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करने के लिए चार मठों की परंपरा का प्रारंभ किया था लेकिन क्या आज के शंकराचार्य उस परंपरा पुष्पित और पल्लवित करने का प्रयास कर रहे हैं? समभाव स्थापित करने के लिए जिस परंपरा का प्रारंभ किया गया था आज वह परंपरा अपने अस्तित्व की तलाश में ही कहीं खो गई है।
स्वामी स्वरूपानंद को मां सीता का हरण करने वाले रावण की पूजा नहीं दिखती, उनको यह नहीं दिखता कि उनके ही ‘आशीर्वाद’ से सत्ता पाने वाली कांग्रेस पार्टी के नेता हमारे पूर्वज श्रीराम के जन्म पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हैं, और तो और उनको यह भी नहीं दिखता कि जिस भारतवर्ष की एकता, अखंडता और एकात्मता के संरक्षण के लिए ‘शंकराचार्य’ की परंपरा शुरू हुई थी, उसी भारतभूमि के टुकड़े करने की आवाजें इसी धरती पर उठती हैं। उनको दिखता है तो बस यह कि कौन, कहां, किस मंदिर में जाकर किसकी मूर्ति पर फूल चढ़ा रहा है। यदि सच में स्वरूपानंद सरस्वती को अपने पद की गरिमा का भान होता तो जब जेएनयू में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारे लगे थे, उस दौरान वह तत्काल प्रभाव से एक धर्म संसद बुलाते और ऐलान करते कि भारत की अखंडता पर किसी प्रकार का आघात सहन नहीं किया जाएगा।
कुछ लोगों का कहना है कि साईं-शंकराचार्य विवाद के पीछे साईं मंदिर का ‘चढ़ावा’ मूल विषय है। संभव है कि ऐसा हो लेकिन मेरा मानना है कि शंकराचार्य जैसे पद पर आसीन व्यक्ति को इन विषयों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।sai मुझे तो यहां तक लगता है कि ‘चढ़ावा’ तो सनातन परंपरा की एक कुरीति है, जिसे समाप्त करना चाहिए। लेकिन शंकराचार्य का काम यह नहीं है कि वह इस कुरीति को समाप्त करने के लिए एक अंधविश्वास को बढ़ावा दें। मंदिर, श्रीसाईं का हो या श्रीहनुमान का, कहीं पर भी कुछ मांगने की इच्छा से जाना शायद भक्ति नहीं लालच है। इसके बाद भी ‘मुझे पास करा दो, 2 किलो देशी घी के लड्डू चढ़ाऊंगा’ जैसी बातें तो प्रत्यक्ष भ्रष्टाचार लगती हैं। भ्रष्टाचार के इस दलदल में अपने ईष्ट को फंसाने की आवश्यकता किसे और क्यों महसूस होती है, इस बात को समझना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल है।
जो परम पिता परमेश्वर इस सृष्टि को चला रहा है, उसके सामने खड़े होकर यह बताना कि मुझे क्या चाहिए, अत्यंत हास्यास्पद लगता है। अगर मेरे हृदय की बात को अगर वह परमेश्वर भी बिना कहे नहीं समझता है तो कौन समझेगा? कुछ भी प्राप्त करने के लिए कर्म की प्रधानता अनिवार्य है। अपने मन के ब्रह्म के प्रति पूर्ण समर्पित होकर यदि कार्य किया गया तो विश्वास मानिए, किसी मंदिर, मजार, गुरुद्वारे या चर्च में कुछ मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

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