Wednesday 6 April 2016

बिना तुम्हारे स्वप्न लोक भी लगता मुझको अधूरा था

तेरी आँखों में डूबा, हृदय प्रफुल्लित हुआ तभी तो
तेरी बाँहों में झूला, शब्द प्रस्फुटित हुआ तभी तो

जीवन का आधार बनी तुम, बसकर मेरी सांसों में
फिर मेरा संसार बनी तुम, आकर मेरी बाँहों में

प्रेमपुंज का दीपक हो तुम, मेरी तुम अभिलाषा हो
मुझको मुझ से मिलाने वाली, तुम मेरी परिभाषा हो

कैसे तुमको नहीं लिखूं मैं, तुम तो मेरी चाहत हो
कलम में पड़ने वाली स्याही, की तुम तो अकुलाहट हो

तुमने जीना सिखलाया, फिर नजर झुका कर चली गई
फिर इस गौरव की इच्छा, बाजार बीच में छली गई

तुझमें खोकर खुद को पाया, कैसे अहसान चुकाऊंगा
तू भी दूर गई तो बोलो कैसे जीवित रह पाऊंगा।

ये शब्द नहीं पीड़ाएँ हैं, जीवन के अकथित पृष्ठों की
था प्रेम भरा तुमने आकर, फिर छोड़ मुझे तुम चली गई।

जाना था तो जाती तुम, क्यों सुन्दर स्वप्न वो दिखलाए
क्यों किया दिखावा मुझसे वो, क्यों महल कीर्ति के बिखराए।

था प्रेम तुम्हारा जीवन में, तब मैं खुद में ही पूरा था
बिना तुम्हारे स्वप्न लोक भी लगता मुझको अधूरा था

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