Tuesday 21 June 2016

...अब किसी घायल को अनदेखा करके नहीं जाऊंगा

मेरी फेसबुक फ्रेंड लिस्ट में रोहित पांडे नामक एक पत्रकार मित्र जुड़े हुए हैं। मेरा और रोहित का परिचय पिछले तीन सालों से है। रोहित से मेरी सामान्य मित्रता थी, 4-5 महीनों में बात हो जाया करती थी, कभी अगर मेरा लखनऊ जाना हुआ या उनका दिल्ली आना हुआ तो मिलना हो जाता था। हमारे बीच सामान्य तौर पर राजनीतिक चर्चाएं हुआ करती थीं। उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में मैं बहुत अधिक नहीं जानता था लेकिन फादर्स डे (19 जून) के मौके पर विभिन्न समाचार पत्रों तथा वेबसाइट्स के माध्यम से उनके बारे में जो कुछ पता चला उसने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं उन पर गर्व करूं। चलिए तो अब आपको बताता हूं रोहित की कहानी…
कल शाम रोहित से इस बारे में बात की तो उन्होंने कहा, ‘विश्व गौरव भाई, इस जीवन में बस एक ही लक्ष्य है कि लोगों को जीवन का महत्व समझ में आ जाए। मैंने अपने पिता के बिना अब तक का जीवन जिस पीड़ा के साथ जिया है, मैं नहीं चाहता कि कोई और उस पीड़ा को झेले। अपने स्तर पर जितना कर सकता हूं कर रहा हूं। शायद मेरे काम से किसी के घर की खुशियां बची रहें।’ फादर्स डे पर रोहित ने अपनी फेसबुक टाइमलाइन पर कुछ लिखा था। उनकी भावनाओं को उन्हीं के शब्दों में आप सभी से शेयर कर रहा हूं-उत्तर प्रदेश स्थित बलरामपुर के रहने वाले रोहित पांडे के पिता जी का देहांत 28 नवंबर 2002 को एक सड़क दुर्घटना में हो गया था। उस वक्त रोहित की उम्र मात्र 12 वर्ष थी। 2009 में रोहित का जाना उस स्थान पर हुआ जहां उनके पिता की मृत्यु हुई थी। वहां पर रोहित को पता लगा कि ऐक्सिडेंट के बाद उनके पिता 45 मिनट तक सड़क पर ही पड़े रहे लेकिन किसी ने भी उन्हें अस्पताल तक नहीं पहुंचाया। समय रहते इलाज न मिल पाने के कारण उनके पिता ने दम तोड़ दिया। ऐसे हादसे के बाद जब कोई भी सामान्य व्यक्ति पूरी तरह से टूट जाता है, रोहित ने एक संकल्प लिया कि वह सड़क हादसे में घायल हुए लोगों के जीवन को बचाने का हरसंभव प्रयास करेंगे। 2009 से आज तक रोहित अपने उस संकल्प के साथ ही जीवन यापन कर रहे हैं। रिपोर्टिंग के दौरान यदि कहीं पर कोई भी व्यक्ति उन्हें घायल अवस्था में मिल जाता है तो वह तत्काल उसे हॉस्पिटल ले जाते हैं। अब तक रोहित 35 से अधिक लोगों का जीवन बचा चुके हैं। कई बार तो वह अपने घर के काम के लिए दिए गए पैसे को भी घायलों के इलाज में लगा चुके हैं।
प्रणाम पिता जी, वैसे तो यार हर दिन तुम्हारी याद आती है, अमा तुम थे भी वैसे कि याद आओ। पान खाते, मुस्कुराते, राजदूत से फड़फड़ाते हुए, वैसे कुछ दिन पहले बॉक्सर भी तो ले ली थी, है आज भी। मिलना यार पापा, लेकिन जाना मत कुछ काम लेना है तुमसे। और सुनो मैं भी सबसे मुस्कुराते हुए ही मिलता हूं, तुमसे ही सीखा था।
पापा कब आओगे?
जाने कब से ढूंढ रहा हूं
अपनों में और सपनों में ,
इन पलकों की छांव तले
क्या एक झलक ना दिखलाओगे ?
सच बोलो ना पापा मुझसे,
पापा कब आओगे ?
आपको याद करके मां 
हर दिन है रोया करतीं,
आपकी यादों में वह 
हर पल है खोया करतीं ,
यादों के इन झरोखों से बाहर
क्या आप कभी ना आओगे?
सच बोलो ना पापा मुझसे ,
पापा कब आओगे?
आपके बिना सूना है घर-आंगन ,
आपके बिना सूना है यह जीवन ,
क्या अपनी आवाज इस घर-आंगन में
फिर से नहीं सुनाओगे?
सच बोलो ना पापा मुझसे,
पापा कब आओगे?
क्या रूठे हो पापा मुझसे
या खुशियां हमसे रूठ गई हैं,
इन रूठी खुशियों को क्या
फिर से नहीं मनाओगे?
सच बोलो ना पापा मुझसे,
पापा कब आओगे ?
जानता हूं जीवन की इस सच्चाई को
कि आप कभी ना आओगे,
फिर भी आंखों में छिपे इस इंतज़ार को
क्या कभी ना ख़त्म करवाओगे?
सच बोलो ना पापा मुझसे ,
पापा कब आओगे?
भले ही आपको रोहित की कहानी कुछ खास न लगी हो लेकिन मैंने तय कर लिया है कि मैं भी उनकी तरह ही सड़क पर घायल पड़े किसी भी व्यक्ति को अनदेखा करके नहीं जाऊंगा। क्या आप नहीं चाहेंगे कि आपकी छोटी सी मदद से किसी परिवार की खुशियां बची रहें? सोचिएगा जरूर और अगर उचित लगे तो कुछ ऐसा ही करिएगा भी।

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