'मेरा विश्वास है की विदेशी संगीनों से पराधीन किया गया राष्ट्र सदैव युद्ध की स्थिति में ही रहता है। चूंकि निःशस्त्र जाति द्वारा खुला युद्ध करना असंभव है इसलिए मैंने अकस्मात हमला किया। मैंने पिस्टल निकली और गोली चला दी। मुझ जैसा निर्धन बेटा खून के अलावा अपनी मां को और क्या दे सकता है? इसीलिए मैंने उसकी बलिवेदी पर अपना बलिदान कर दिया है। आज भारतीयों को जो एकमात्र सबक सीखना है, वह है कि किस तरह मरें और यह सिखाने का एक ही तरीका है, खुद मरकर दिखाना। मेरी भगवान से एक ही प्रार्थना है कि मैं फिर से उसी मां की गोद में पैदा होऊं और जब तक हमारा लक्ष्य पूरा न हो, उसी पावन लक्ष्य के लिए दोबारा मरूं। वन्दे मातरम्।' एक अंग्रेज अधिकारी के वध के बाद भारत के एक वीर सपूत ने यह बात फांसी के तख्ते पर खड़े होकर कही थी। 17 अगस्त,1909 को सुबह 6 बजे क्रांतिकारी मदन लाल धींगरा को फांसी दे दी गई। जब 11 अगस्त 1908 को भारत में खुदीराम बोस और उसके बाद कन्हाई दत्त सहित कई क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दी गयी तब मदन लाल ने लंदन में विनायक दामोदर सावरकर से पूछा की क्या अपनी मातृभूमि के लिए प्राण देने का यह सही वक्त है? उनके इस सवाल का जवाब देते हुए सावरकर ने कहा, 'अगर तुम सर्वोच्च बलिदान के लिए तैयार हो और तुम्हारे मन ने अंतिम मुक्ति के बारे में सोच लिया है तो निश्चित रूप से अपने राष्ट्र के लिए प्राण देने का यह सही समय है।' सावरकर की प्रेरणा से ही मदनलाल ने तत्कालीन भारत सचिव के सहायक सैनिक अधिकारी कर्जन वायली का वध करने का निर्णय लिया और 1 जुलाई 1909 को वायली का वध कर दिया। इसके बाद धींगरा ने खुद को समाप्त करने की भी कोशिश की लेकिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 23 जुलाई 1909 को ओल्ड बेली कोर्ट में जब मदन लाल धींगरा पर मुकादमा चलाया जा रहा था तो उन्होंने कहा, 'मुझे कर्जन की हत्या का कोई अफसोस नहीं है क्योंकि मैंने ऐसा करके भारत को अमानवीय ब्रिटिश राज की गुलामी से मुक्त कराने में अपना योगदान दिया है। जबकि कावसजी को मारने का मेरा कोई इरादा नहीं था।' कावसजी लाल्काका एक पारसी डॉक्टर था जिसने वायली को बचाने की कोशिश की तो मदनलाल ने उस पर भी दो गोलियां चला दीं। उन्होंने कोर्ट में कहा, 'मेरा मानना है कि अगर जर्मन, अंग्रेजों पर कब्ज़ा कर लें तो अंग्रेजों का जर्मनों के खिलाफ युद्ध करना ही राष्ट्रभक्ति है। ऐसे में मेरा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना और भी ज्यादा न्यायोचित और देशभक्तिपूर्ण है। पिछले 50 सालों में अंग्रेजों ने 8 करोड़ भारतीयों की हत्या की है और हर साल भारत से 100,000,000 पाउंड (8.7 अरब रुपए) धन लूटा है। मैं अंग्रेजों को अपने देशभक्त देशवासियों को फांसी देने और निर्वासित करने के लिए भी जिम्मेदार मानता हूं, मैंने वही किया था जो यहां अंग्रेज अपने देश के लोगों को करने की सलाह देते हैं। जिस तरह जर्मन्स को इस देश (इंग्लैंड) पर कब्ज़ा करने का कोई अधिकार नहीं है उसी तरह अंग्रेजों को भी हमारे भारत पर कब्ज़ा करने का कोई हक़ नहीं है। इस तरह हमारी ओर से यह पूरी तरह न्यायोचित है कि हम उन अंग्रेजों को मारें जो हमारी पवित्र भूमि को अपवित्र कर रहे हैं। मैं अंग्रेजों के इस भयानक पाखंड, तमाशे और मज़ाक पर आश्चर्यचकित हूं।' इसके बाद मदन लाल को जज ने दोषी करार देते हुए पूछा कि क्या उन्हें कुछ कहना है कि उन्हें मृत्युदंड क्यों न दिया जाए? इस पर उन्होंने जवाब दिया, 'मैं आपको बार-बार कह चुका हूं कि मैं इस कोर्ट को मान्यता नहीं देता। आप जो चाहें कर सकते हैं मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। आज तुम गोरे लोग सर्व-शक्तिशाली हो लेकिन याद रखो कभी हमारा भी वक्त आयेगा ,तब हम जो चाहेंगे वह करेंगे।' सजा सुनाए जाने के बाद उन्होंने वीरता से कहा ,'धन्यवाद, मुझे गर्व है कि मुझे अपने देश के लिए अपने प्राण देने का सौभाग्य मिला है।' आज 107 साल बाद मदन लाल धींगरा के बलिदान दिवस पर हम इतना तो कर ही सकते हैं कि राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व को समझें। हम कहीं भी रहें, कुछ भी करें लेकिन यह मत भूलें कि जिस धरती पर हमने जन्म लिया है, जिस धरती ने हमें अन्न और जल दिया है, उसके प्रति भी हमारी कुछ जिम्मेदारी है। आप सबसे पहले एक इंसान हैं, उसके बाद एक भारतीय और फिर अंत में उस क्षेत्र के प्रतिनिधि, जिसमें आप काम करते हैं।
एक कोशिश, आपको समझने की। एक कोशिश, खुद को समझाने की। एक कोशिश, आपसे जुड़ने की। एक कोशिश, आपकी आवाज बनने की। एक कोशिश, खुद के नाम को सार्थक करने की।
Thursday 25 August 2016
बलिदान दिवस: फांसी से पहले मदन लाल ने कहा...
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