Saturday 20 August 2016

कौन हूं मैं....

इस तस्वीर को देखिए, भारत समझ में आ जाएगा।
21 साल की एक लड़की जिससे 130 करोड़ लोगों की उम्मीदें जुड़ी थीं, वह मैच हार गई तो निराश होकर गिरना स्वाभाविक था... वह गिरी...फिर चंद सेकंड बाद वह उठी और उठकर पहुंच गई उसे शुभकामनाएं देने जिससे वह हारी थी... यह है मेरा भारत और यह है मेरी संस्कृति...एक 'आप' हैं, जिससे यदि किसी के विचार न मिलें तो आप उसे 'गाली' देने लगते हैं... उस पर भड़कने लगते हैं... अरे साहब! भारत यूं ही नहीं बनता... ऐसी बेटियां बनाती हैं भारत... आपकी विचारधारा पहुंची होगी कभी बड़े-बड़े देशों तक... जीते होंगे आपने देश... हमने दिलों को जीता है... और दिलों में ही बसते हैं इसीलिए हम आज भी हैं और आप खत्म होनी की कगार पर...


एक वर्ग के लोग मुझसे कहते हैं, आप बहुत अच्छा लिखते हो, बड़े राष्ट्रवादी हो, यह मोहब्बत पर लिखना बंद कर दो, शायरी लिखना बंद कर दो... दूसरे वर्ग के लोग कहते हैं, यार कहां फालतू संस्कृति-देश के चक्कर में पड़े हो, बहुत अच्छी कहानियां लिखते हो, बहुत अच्छी शायरी लिखते हो, #क्वीन पर नॉवेल लिखो, छोड़ो यह सब...

मैं आप सबकी मोहब्बत के विश्वास पर उन दोनों तरह के लोगों को एक ही जवाब देता हूं कि आज जरूरत है कि इस देश के लड़के-लड़की किसी एक चेहरे से मोहब्बत करने के साथ-साथ वतन से भी मोहब्बत करें... आज जरूरत है कि शायरी लिखने वाले लोग भी देश के लिए लिखना सीखें, अपनी शायरी में संस्कार लाएं... आज जरूरत है कि जींस पहनने वाले लोग भी तिलक के वैज्ञानिक महत्व को समझें... आज जरूरत है कि संस्कृति की रक्षा के नाम पर प्रेम विवाह या अंतर जातीय विवाह का विरोध न किया जाए बल्कि इस बात को समझा जाए कि एक दूसरे को जितना ज्यादा बेहतर तरीके से समझने के बाद शादी होगी, जीवन के लिए उतना ही बेहतर होगा....

वतन से मोहब्बत हुई तो राष्ट्रवाद लिखना शुरू किया और जब एक लड़की से मोहब्बत हुई तो मोहब्बत पर लिखने लगा, शायरियां लिखने लगा, कविताएं लिखने लगा... इसमें क्या गलत किया... दोनों को दायित्व के रूप में लिया और आज भी दोनों से पूरी शिद्दत से मोहब्बत करता हूं और उसी समर्पण भाव से अपने मन के भावों को लिख देता हूं... चूंकि वह वास्तविक है, उसमें स्वार्थ नहीं है इसलिए लोगों को पसंद आता है...

मैं राष्ट्रवाद लिखता हूं तो संस्कृति बचाने की कोशिश करता हूं और जब मोहब्बत पर लिखता हूं तो हिंदी के संस्कार बचाने की कोशिश करता हूं। मुझे नहीं पता कि मैं आज तक कितना सफल हुआ लेकिन आप लोगों के भरोसे मैं इतना जरूर जानता हूं कि आज से 15-20 साल के बाद जब मेरी बहन की बेटी मुझसे कहेगी कि मामा जी, आपने अपनी जिंदगी में क्या किया तो मैं उससे नजर मिलाकर कह सकूं कि मैंने उन लोगों तक हिंदी का संस्कार पहुंचाया जो गर्लफ्रेंड द्वारा मेसेज का जवाब न दिए जाने पर रात भर अंग्रेजी गानों को सुनते थे, मैंने उन लोगों का भारत की गौरवशाली संस्कृति पहुंचाई जो किसी 'बुद्धिजीवी' के प्रभाव में अपने भारतीय स्वभाव को भूल गए थे...

मुझे नहीं पता कि वेदों में क्या-क्या लिखा है। मैंने पूरी तरह से वेदों का अध्ययन नहीं किया है। सच तो यह है कि मेरा स्तर ही वह नहीं है कि वेदों के मूल अर्थ को समझ सकूं लेकिन इधर-उधर से वेदों की ऋचाओं का वास्तविक अर्थ पता लगाने का प्रयास करता रहता हूं। अब तक मुझे किसी ने ऐसा न कुछ बताया जो आपत्तिजनक हो और ना ही अब तक मैं ऐसा कुछ खोज पाया। मैंने मनुस्मृति को भी नहीं पढ़ा था लेकिन जब लोग मनुस्मृति की प्रतियां जलाने लगे तो मनुस्मृति का अध्ययन करना शुरू किया। जितना मैंने समझा उसमें कुछ भी ऐसा नहीं मिला जो किसी जाति अथवा लिंग के विरोध में हो।

लेकिन हां, मैंने जिस परिवार में जन्म लिया उसमें परदादी जी,दादा जी और दादी जी रामचरित मानस का पाठ करते थे और फिर मुझे भी राम जैसा बनने को कहते थे, बचपन में मुझे राम और छोटे भाई को लक्ष्मण कहकर बुलाया जाता था। इतना कुछ होने पर बालमन में इच्छा जगती थी कि राम में आखिर ऐसा क्या है कि उनकी तरह बनने को कहा जा रहा है। उत्सुकतावश जब दादा-दादी से पूछता था तो वह सब कुछ बताते थे। जितना जाना, जितना समझा बहुत अच्छा चरित्र लगा और जब चरित्र पसंद आया तो उन्हीं के आदर्शों पर चलने का प्रयास करने लगा...

जिस विद्यालय में शिक्षा पाई, वहां पर गीता के श्लोकों और सुभाषितों से सुबह होती थी। वहां उन श्लोकों को सिर्फ रटाया नहीं जाता था बल्कि उनका अर्थ बताया जाता था, साथ ही उनकी व्यवहारिकता बताते हुए अनुसरण करना भी बताया जाता था। वहां सारी लड़कियां बहनें होती थीं जो एक सगी बहन की तरह ही प्रेम देती थीं।

जिस संगठन से जुड़ा उसने सकारात्मकता दी, उसने बताया कि क्यों अपनी संस्कृति पर गर्व करें। लेकिन वहां मुझे कभी नहीं कहा गया कि दूसरों को गाली दो, वहां मुझे कभी नहीं कहा गया कि सिर्फ हम अच्छे हैं। वहां पर सिर्फ यही कहा गया कि सबका अपना विशिष्ट महत्व है, स्थान के अनुसार प्रासंगिकता बदल जाती है... उनके लिए यह उचित नहीं हो सकता और यहां के लिए वह ठीक नहीं हो सकता।

मुझे जो कुछ मिला, उससे बेहतर नहीं मिल सकता था और शायद इसी कारण आज जब किसी के सामने खड़े होकर बात करता हूं तो नजरें नीचे नहीं करनी पड़ती...  शीशे के सामने खड़े होने पर खुद से नजर मिला पाता हूं और इसी वजह से आपकी झल्लाहट पर भी शांत भाव से आपके बीच में खड़ा रहता हूं। शायद यही वजह है कि मैं 'आप' को पसंद नहीं आता...क्योंकि 'आप' अपने कर्मों की वजह से, अपने विचारों की वजह से लोगों से नजर नहीं मिला पाते और आपको लगता है कि जब मैं लोगों के सामने खड़े होने की क्षमता नहीं रखता तो यह कैसे खड़ा रहता है...

लोग मुझसे कहते हैं तुमने क्या किया है, तुम क्या करोगे? मैंने अब तक जो भी किया है, उससे पूर्ण रूप से संतुष्ट हूं। स्कूल में जब मोहब्बत हुई तो पूरी शिद्दत से की... सिर्फ मोहब्बत की... सब-कुछ छोड़ दिया... मोहब्बत की तो ऐसे की कि जब वह लड़की पहली बार किसी की बाहों में गई तो उससे बोली कि प्यार कर रहे हो तो गौरव की तरह करना। वह बेचारा इतना परेशान हो गया कि मुझे फोन लगाकर हमारे रिश्ते के 'स्तर' के बारे में पूछने लगा... जब सच बताया तो बस यही कह पाया कि 'अजीब' हो दोस्त...वह लड़की अब मेरे साथ नहीं है लेकिन आज भी उसी निष्ठा से प्यार करता हूं... मोहब्बत की तो ऐसे की, कि इतने सालों बाद आज जब #क्वीन पर लिखना शुरू किया तो अगर बीच में कुछ दिन न लिखूं तो पचासों मेसेज यह पूछने के लिए आ जाते हैं कि मैं अपनी #क्वीन के बारे में लिख क्यों नहीं रहा...

यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान निःस्वार्थ भाव से छात्रों के लिए संघर्ष किया, लाठियां खाईं, घरवालों से मार खाई... 'नेतागिरी करते हो' कहकर पापा ने बात करना बंद कर दिया फिर भी मैं वही करता रहा जो कर रहा था... मेरे साथ के लोग एडमिशन के नाम पर, पास कराने के नाम पर छात्रों से खूब पैसे लेते थे, मैं भी वह सब कर सकता था, इतना सक्षम था, लेकिन नहीं किया...

एक दिन मन में आया कि जब इन सब में कोई भविष्य नहीं बनाना है तो फिर क्यूं यह सब कर रहा हूं लेकिन उसी शाम जब विश्वविद्यालय में आरटीआई आंदोलन के दौरान पुलिस ने लाठीचार्ज किया, जमकर पीटा और गिरफ्तार करके ले जाने लगी तो पुलिस की गाड़ी के सामने वे लड़कियां जिनसे मेरा कोई रिश्ता नहीं था, जिनके मैं नाम तक नहीं जानता था, सैकड़ों की संख्या में लेट गईं... थाने में पुलिस मुझे लेकर पहुंची तो मेरे घरवालों से पहले वे लड़कियां पहुंच कर बैठ गईं...लखनऊ जैसी जगह में थाने में जब उन्होंने चीखना शुरू किया कि जब तक भईया को नहीं छोड़ा जाएगा तब तक नहीं जाएंगे तो अहसास हुआ कि जो कर रहा हूं वह सही है...

सोशल मीडिया पर ऐक्टिव हुआ तो दिन में 14-14 घंटे फेसबुक चलाता था... इतना 'कड़वा' लिखा कि फेसबुक ने आईडी ही बंद कर दी। 2008 का वह दौर जब साथ के लोग फेसबुक के बारे में जानते नहीं थे तब एक-एक पोस्ट पर सैकड़ों की संख्या में लाइक आते थे, मेरी टाइमलाइन से शेयर की गई तस्वीरों पर हजारों की संख्या में शेयर आते थे... लोगों ने साइबर सेल में केस किए... लोगों ने धोखे से बुलाकर पीटा लेकिन हार नहीं मानी, लिखना बंद नहीं किया... कल रात तक 16 बहनें राखियां भेज चुकी हैं... मेरी कलाई पर मेरी सगी बहन की राखी तो सजी लेकिन जिनसे कभी नहीं मिला, सिर्फ सोशल मीडिया पर बात हुई, वे राखी भेजना नहीं भूलीं... ऑफिस और कॉलेज की व्यस्तताओं के चलते पिछले 4 सालों से रक्षाबंधन पर अपनी एकलौती बहन को हर बार बहाने बताकर टाल देता हूं लेकिन इन बहनों की राखियां कभी मुझे अपनी नजरों में 'अपराधी' जैसा महसूस नहीं होने देतीं।

जब किसी लड़की को 'बहन' कहकर संबोधित करता था तो एक बार को तो लड़कियां हैरत में पड़ जाती थीं क्योंकि दिनभर भद्दे-भद्दे कॉमेंट सुनने वाले को अगर उन्हें कोई इस तरह से संबोधित कर रहा है तो निश्चित ही हर लड़के को एक जैसा समझने का उनका भ्रम तो टूट ही जाता था। और क्या कहकर संबोधित करता... किसी को गर्लफ्रेंड तो बना नहीं सकता...एक लड़की को ही  सब कुछ जो मान चुका हूं... उसके बाद 'समर्पित' रिश्ते के नाम पर बस यही एक रिश्ता बचता है। मैं जहां पला-बढ़ा वहां पर तो दुकान वाले को भी चाचा जी और सफाई करने वाली महिला को बुआ जी कहा जाता था... न सिर्फ कहा जाता था बल्कि इसी के अनुरूप सम्मान भी दिया जाता था। अब अगर अपनी पुरातन परंपरा का निर्वहन करते हुए किसी को बहन कहता हूं तो क्या गलत कहता हूं।

लेकिन अब दिल्ली में यह भी गलत लगने लगा... यहां ऐसी लड़कियां भी मिलीं जिनको बहन कह दो तो 'तंज' कसने लगती हैं। उनको आपत्ति इस बात से नहीं होती कि उन्हें किस संबोधन से संबोधित किया जा रहा है बल्कि उन्हें आपत्ति इस बात से होती है कि कोई 'अपना' कैसे बन सकता है...उनको डर लगता है अपनेपन से... पता नहीं अपनेपन से डर लगता है कि इस बात को लेकर परेशान रहती हैं कि इतना सजने संवरने की कोशिश करने के बाद भी कोई 'भाव' क्यों नहीं दे रहा है। रिश्तों को बाजारू घोषित करने में लगी रहती हैं....
पीड़ा होती है यार, आखिर मेरा भारत जा कहां रहा है....

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