Thursday 25 August 2016

काम-रेड कथा: क्रांतिकारी का चोला ओढ़े बलात्कारी

देश के दिल दिल्ली में स्थित एक विश्वविद्यालय, जहां मेरे-आपके टैक्स के पैसे से वहां पढ़ने वाले छात्रों को सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) प्रसिद्ध है अपनी प्रगतिवादी सोच के लिए... इस विश्वविद्यालय की सबसे खास बात यहा है कि यहां के छात्रों का एक गुट भारत में 'आजादी' चाहता है। भारत में कुछ चीजें सिर्फ हमारे जेएनयू में ही होती हैं। उदाहरण स्वरूप, जब बस्तर में भारतीय सेना के 72 जवानों को नकसलियों द्वारा मार दिया जाता है तो जश्न मनाया जाता है। लोकतंत्र के मंदिर पर हमला करने के दोषी अफजल गुरू को जब देश की सर्वोच्य अदालत फांसी की सजा सुनाती है तो इस जेएनयू में उस फैसले का विरोध होता है, एक आतंकी की फांसी पर यहां मातम मनाया जाता है। इंटरनैशनल फूड फेस्टिवल के बहाने यहां पर कश्मीर का एक अलग स्टॉल लगाकर उसे एक देश के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। इस विश्वविद्यालय के छात्रों का एक गुट मानता है कि भारत ने पूर्वोत्तर राज्यों पर गलत तरीके से 'कब्जा' करके रखा है और उन्हें 'आजाद' कर देना चाहिए। यहां के 'प्रगतिशील' छात्र आतंकी अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने की कसमें खाते हैं। यहां शक्ति की प्रतीक मां दुर्गा को 'वेश्या' और महिषासुर को 'दलित' बताया जाता है। यहां भारत की बर्बादी तक जंग को जारी रखने के नारे लगते हैं। यह है मेरा जेएनयू... 

ऐसा नहीं है कि जेएनयू का मात्र यही रूप है। इसके अलावा जेएनयू का एक रूप भी है जिसने 'भारत' बनाने में अहम योगदान दिया है लेकिन यहां इस सकारात्मक रूप पर नकारात्मक रूप हमेशा प्रभाव स्थापित किए रहता है और इसी मजबूरी के कारण हमारी आंखों के सामने जेएनयू का नकारात्मक स्वरूप ही प्रदर्शित होता है। 2 दिन पहले इस विश्वविद्यालय के एक छात्रनेता ने विश्वविद्यालय की ही एक छात्रा को मराठी फिल्म सैराट दिखाने के बहाने अपने हॉस्टल में बुलाया और फिर उसे शराब पिलाई। इसके बाद छात्र संगठन आइसा के 'अनमोल रतन' ने छात्रा का बलात्कार किया। क्या कहेंगे इसे आप? आधुनिकता, प्रगतिवादिता या फिर आजादी?

इस देश में आजादी के मायने क्या होते जा रहे हैं, यह इन हालातों में समझने की कोशिश करना, व्यवहारिकता को एक कभी न सुलझने वाले जाल में उलझा सकता है। हैरानी की बात तो यह है कि मानवतावाद, नारीवाद और शोषण के विरोध में लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले लोग इस पूरे मामले पर खामोश हैं। उन्हें न तो इसमें किसी महिला का शोषण दिख रहा है और ना ही इसमें उन्हें मानवता की हत्या दिख रही है। इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि अब आधुनिकता के पैमानों पर बहस भी नहीं हो रही है। किसी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उस लड़की की संवेदनाओं की हत्या क्यों की गई? आइसा ने अपने 'अनमोल रतन' की प्राथमिक सदस्यता रद्द करके अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। अगर वह सामान्य कार्यकर्ता होता तो बात को सामान्य कहकर टाल दिया जाता लेकिन वह दिल्ली प्रदेश का अध्यक्ष रह चुका है। छात्र संगठनों को जितना मैं जानता हूं वे ऐसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी ऐसे ही व्यक्ति को देते हैं जो उनकी विचारधारा को अपने कृतित्व में आत्मसात करता हो। तो क्या यह मानना ठीक नहीं होगा कि वर्तमान वामपंथी विचारधारा ही इस कुत्सित मानसिकता से ग्रसित है।

आज यह बात सामने आ गई है, साथ ही यह भी सामने आया है कि उस छात्रनेता ने छात्रा पर इस घटना का बाहर जिक्र न करने को लेकर दबाव भी बनाया था। तो क्या इस बात को लेकर कोई शंका रह जाती है कि जेएनयू में यह सब आए दिन होता रहता हो और ऐसे ही दबाव के चलते छात्राएं इसका जिक्र बाहर न कर पाती हों। 

बेहतर होता अगर हमारे देश के नेता उस पीड़िता को अपनी बेटी बताकर उसे न्याय दिलाने की बात करते। बेहतर होता कि हमारी राजनीतिक पार्टियां एकमत से रेड झंडे को लेकर 'काम' की आग में जलने वाले कामरेडों की 'आजादी' पर प्रतिबंध लगाने की बात करतीं। बेहतर होता कि 'आजादी' के सिपहसालार इस विषय पर भी अपनी कलम चलाकर ऐसी कुत्सित मानसिकता से प्रेरित हरकत करने वाले व्यक्ति के लिए सजा की मांग करते। बेहतर होता अगर मेरे देश के प्रगतिशील वर्ग के पत्रकार ऐसे विषयों पर भी अपने चैनल की स्क्रीन काली करते। काश! यह सब हो पाता। काश....!!!

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