Monday 12 September 2016

'न्याय की देवी' के मुंह पर तमाचा है शहाबुद्दीन की जमानत

इस देश में 2 दिन पहले एक ऐसे व्यक्ति को जेल से छोड़ दिया गया जिसे 2 अलग-अलग मामलों में उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। उस व्यक्ति पर हत्या, रंगदारी और अपहरण जैसे गंभीर अपराधों के 63 मामले दर्ज हैं।

 उस व्यक्ति ने देश में मजलूमों की लड़ाई लड़ रहे चंद्रशेखर प्रसाद नामक एक युवा नेता की हत्या करवा दी ताकि उसके खौफ से कोई उस पर उंगली उठाने की कोशिश न करे। उस व्यक्ति के घर से पाकिस्तान में बने हथियार बरामद हुए थे। उस व्यक्ति पर आईएसआई से संबंध होने का आरोप है। वह व्यक्ति एक सीनियर पुलिस अधिकारी को इसलिए थप्पड़ मारता है क्योंकि वह पुलिस अधिकारी ईमानदारी से अपनी ड्यूटी निभाते हुए उसके एक करीबी नेता को गिरफ्तार करने पहुंच गया था। उस व्यक्ति पर लोकतात्रिंक व्यवस्था का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले एक पत्रकार की हत्या का आरोप है। इतने ‘बड़े’ व्यक्ति को देश की ‘महान’ न्याय व्यवस्था जमानत दे देती है।


‘मेरे दो बेटों गिरीश और सतीश को मारा गया था, तब एक की उम्र 23 और दूसरे की 18 साल थी। दो बेटों की हत्या का बदला लेने के लिए मेरा बेटा राजीव लड़ रहा था। राजीव मेरा सबसे बड़ा बेटा था, लेकिन 16 जून, 2014 को उसे भी मारकर, मेरे लड़ने की सारी ताकत खत्म कर दी गई। राजीव को शादी के ठीक 18 दिन बाद मार डाला गया।’ ये शब्द हैं एक लाचार पिता के… चंदा बाबू नामक उस पिता की खामोश जुबान बता रही है कि कानून की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी न्यायिक व्यवस्था के मुंह पर एक तमाचा है।

 किस परिस्थिति, किस दबाव, किस डर और किस लालच के चलते एक ऐसे व्यक्ति को जमानत दे दी जाती है जिसके सामने खड़े होने में एक सामान्य व्यक्ति घबराता हो। विक्रमादित्य नाम का एक राजा, जो रात में अपने क्षेत्र में वंचितों की समस्याओं को सुनने के लिए निकलता था, उसके क्षेत्र में एक पिता के भय को नजरंदाज करके, अपराध का दूसरा नाम कहे जाने वाले शहाबुद्दीन की रिहाई पर अहंकार में चूर नीतीश कुमार नामक वर्तमान ‘सम्राट’  खामोश क्यों बैठा है, यह समझ से परे है। क्या आप ऐसी परिस्थितियों में कह सकते हैं कि कोई वंचित अथवा आप स्वयं वर्तमान न्याय व्यवस्था पर भरोसा कर सकते हैं।

मुझे पता है कि याकूब मेमन और अफजल गुरू के समर्थन में आवाज उठाना पूरी तरह से देशद्रोह भी है और राष्ट्रद्रोह भी लेकिन शहाबुद्दीन जैसे अपराधियों के समर्थन में गाड़ियों की रैली निकालना और लिखना देशद्रोह की श्रेणी में क्यों नहीं आता। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सिर्फ देश की न्याय व्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं। बहुत अच्छी बात है, सवाल उठना भी चाहिए लेकिन सवाल न्याय व्यवस्था के साथ-साथ उस अवार्ड वापसी गैंग पर क्यों नहीं उठाया जा रहा जो कभी सहिष्णुता और मानवीयता के नाम पर सड़कों पर उतर आए थे।

जेएनयू की जीत पर जश्न मनाने वाले लोग अपनी अग्रज पीढ़ी के उस वास्तविक कॉमरेड के हत्यारे की रिहाई पर खामोश क्यों हैं जिसने वामपंथ की परिभाषा को नए आयाम दिए? डूसू चुनाव की जीत पर राष्ट्रवाद का झंडा उठाकर पटाखे फोड़ने ऐसे लोग जो लखनऊ में एक शिक्षक के पीटे जाने पर ‘शिक्षक के सम्मान में…’ जैसे नारे लगाते हैं और समाजवादी पार्टी को अपराध का प्रणेता बताते हैं, वे भी चुप्पी क्यों साधे हैं? शायद किसी ने सच ही कहा कि सत्ता का नशा अपने ‘परिवार’ पर किए गए जुल्मों को भी भुला देता है। देश आज चुपचाप बैठा है, क्यों? क्योंकि शायद उसे अब भी उम्मीद है कि आप खड़े होंगे, उस व्यवस्था के खिलाफ जिसने आपको अपनों से दूर किया है, उस राजनीति के खिलाफ जिसने पता नहीं कितने मासूमों को पिता विहीन कर दिया, उस तथाकथित नेता के खिलाफ जिसने ‘अपराधवाद’ की एक नई परिभाषा प्रतिस्थापित की, उस न्याय व्यवस्था के खिलाफ जिसमें मानवीयता शून्य के स्तर तक पहुंच गई है।

भले ही वह देश के एक राज्य के एक छोटे से जिले में रहने वाला एक ‘बाहुबली’ हो लेकिन याद रखिएगा, उसके कर्म किसी आतंकी से भी बुरे हैं। आतंकी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिसे वह मारने जा रहा है वह कौन है, लेकिन शहाबुद्दीन जैसे लोग तो घर के अंदर रहकर ही हमारे भाइयों को मार देते हैं, औरतों को विधवा कर देते हैं, पिता से उनका बेटा छीन लेते हैं, मां बच्चों को अनाथ कर देते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ तो आप सड़कों पर उतर आते हैं लेकिन ऐसे ‘हत्यारे’ जब जेल से छूट जाते हैं तो आपका खून क्यों नहीं खौलता? अपनी ताकत को पहचानिए और बताइए सत्ता के सिंहासन पर बैठे राजनेताओं को कि देश, अपराध और अपराधी मुक्त होना चाहता है।

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