Wednesday 21 September 2016

आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता, तो उन्हें दफनाया क्यों जाता है?


'आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता', यह जुमला तो आपने लगभग हर एक राजनीतिक पार्टी के नेताओं के मुंह से सुना ही होगा। आगे बढ़ने से पहले एक बात स्पष्ट कर दूं कि मैं इसे जुमला इसलिए कह रहा हूं क्योंकि वोटबैंक की राजनीति के चलते इसका प्रयोग किया जाता है। कोई भी दल मन से इस बात को मानता नहीं है कि आतंकवादियों का सच में कोई धर्म नहीं होता। मेरा एक छोटा सा सवाल है कि देश की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां 'कांग्रेस' और 'बीजेपी' दोनों ही अलग-अलग समय में सत्ता में रही हैं? यदि ये दोनों पार्टियां मानती हैं कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता तो फिर उन आतंकियों को इस्लामिक तरीके से दफनाया क्यों जाता है। इससे तो एक ही बात जाहिर होती है कि ये पार्टियां मानती हैं कि आतंकवादी, मुसलमान होते हैं, यानी देश को इस्लामिक आतंकवाद से खतरा है।

मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता, मैं मानता हूं कि देश सिर्फ हिंदुओं का नहीं है। भारत को 'भारत' बनाने की कोशिश मुसलमानों का सहयोग भी रहा है। भारत के गौरवशाली अतीत में अगर मैं महाराणा प्रताप को एक मजबूत स्तंभ मानता हूं तो मुझे उनके सेनापति हकीम खां सूर के शौर्य को अनदेखा करने का अधिकार बिलकुल भी नहीं है। मैं अगर भगत सिंह की शहादत को नमन करता हूं तो मुझे बिलकुल अधिकार नहीं है कि मैं अशफाक उल्ला खां की शहादत को अनदेखा कर दूं। मैं अगर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष को नमन करता हूं तो मुझे यह अधिकार बिलकुल नहीं है कि मैं लखनऊ में 1857 की क्रांति का नेतृत्व करने वाली बेगम हजरत महल की देशभक्ति को अनदेखा कर दूं। मैं अनदेशा नहीं कर सकता  85 साल के उस बूढ़े शेर, बहादुर शाह ज़फर को, जो अंग्रेजों की जेल (रंगून) में कैद था तो अंग्रेजों ने दो पंक्तियां लिखवाकर भेजीं कि,
दमदमे में दम नहीं है, खैर मांगो जान की।
अब ज़फर! ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की।।

तो बहादुर शाह जफर ने वहीं जेल की दीवारों पर दो पंक्तियां जवाब के तौर पर लिखीं:
गाज़ियों में में बू रहेगी, जब तलक ईमान की।
तख्त-ए- लंदन तक चलेगी, तेग हिंदुस्थान की।।

मैं मानता हूं कि इस देश को बनाने में जितना सहयोग हिंदुओं का है उतना ही  अन्य पूजा पद्धतियों में विश्वास रखने वाले लोगों का। और इसी के साथ मैं यह भी मानता हूं कि जो इंसानियत की हत्या करे, जो मासूमों का कत्ल करे, जिसकी मानवीयता शून्य के स्तर से भी नीचे पहुंच गई हो, वह किसी धर्म या मजहब का अनुपालक नहीं हो सकता, क्योंकि कोई भी मजहब यह नहीं कहता कि आतंक फैलाना या निर्दोषों की हत्या करना जायज अथवा धर्मसंगत है।

अब आते हैं मूल बात पर, यदि यह बात सभी मानते हैं कि आतंकियों का कोई धर्म या मजहब नहीं होता तो उनका इस्लामिक पद्धति से अंतिम संस्कार करके क्या हम दुनिया में एक मजहब विशेष की छवि खराब करने की कोशिश नहीं कर रहे? कल उड़ी (जम्मू कश्मीर) में आतंकवादी हमले को अंजाम देने वाले, 18 भारतीय सैनिकों की हत्या करने वाले आतंकियों की लाशों को सेना और पुलिस ने मिलकर दफना(इस्लामिक पद्धति से) दिया। ऐसा करने के पीछे तर्क दिया गया कि इस्लाम के मुताबिक, मौत के बाद शव को नहीं रखा जाना चाहिए। यदि सच में देश की सरकार यह मानती है कि आतंकियों का कोई मजहब नहीं होता तो इस तरह से अंतिम संस्कार करना पूरी तरह से अन्यायोचित है।

मैं भारत का दुर्भाग्य मानता हूं कि इस विषय के पक्ष में जो टीवी चैनल खड़ा होता है, उसके पत्रकार पर कश्मीर में पत्थर चलाए जाते हैं, उसकी ओवी वैन को तोड़ने की कोशिश की जाती है। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि कांग्रेस के नेता कहते हैं कि देश में इस विषय को लेकर राष्ट्रीय स्तर की चर्चा होनी चाहिए। क्यों भाई, इसमें कैसी चर्चा-बहस, जिनका कोई धर्म नहीं उनका धार्मिक तरह से अंतिम संस्कार क्यों हो? जिसमें मानवीयता शून्य के स्तर तक पहुंच जाए, वह मानव कहलाने का अधिकारी नहीं और जब वह मानव कहलाने का अधिकारी नहीं है तो उसके लिए मानवाधिकार की बात क्यों हो?

आतंकियों को भ्रमित करते हुए बताया जाता है कि अगर वे तथाकथित जिहाद करेंगे तो मरने के बाद उन्हें जन्नत में 72 हूरें मिलेंगी। इस्लाम की मान्यता है कि दफनाए गए लोगों को कयामत के दिन अल्लाह जन्नत ले जाएगा। विश्वास मानिए अगर हमने आतंकियों के शव को कूड़े के ढेर के साथ जलाना शुरू कर दिया तो भ्रम में फंसकर आतंक का रास्ता अपनाने वाले लोगों की संख्या में भारी कमी आ जाएगी। इसके अलावा एक भारतीय होने के नाते हम उन लोगों को अपने देश की 2 गज जमीन भी क्यों दें हमारे देश में निर्दोषों की हत्या हैं।

मानवाधिकार की बात सैनिकों के लिए होनी चाहिए, भले ही वह किसी भी देश के हों। युद्ध के दौरान यदि कोई पाकिस्तानी सैनिक यदि शहीद होता है तो उसके शव को ससम्मान पाकिस्तान को वापस किया जाए और यदि पाकिस्तान उस शव को वापस लेने से इनकार करे तो उसका सम्मान सहित मजहबी रीति-रिवाजों के मुताबिक अंतिम संस्कार किया जाए। क्योंकि उसकी मौत अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए हुई है ना कि किसी आधारहीन लालच के कारण।

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