Thursday 8 September 2016

स्वीकार्यता के सिद्धांत पर वामपंथी सहिष्णुता का दोहरापन

‘मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी हूं, जिसने दुनिया को सहिष्णुता तथा सार्वभौमिक स्वीकार्यता दोनों की ही शिक्षा दी है, हम लोग सभी धर्मों के प्रति ही केवल सहनशीलता में ही विश्वास नहीं करते बल्कि सारे धर्मों को सत्य मान कर स्वीकार करते हैं। हमारा मानना है कि सभी रास्ते अंत में एक ही ईश्वर यानी सत्य तक जाने का मार्ग हैं।’ यह बात शिकागो धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद ने कही थी। यदि स्वामी विवेकानंद के पूरे भाषण को एक पंक्ति में समझें तो उसका अर्थ यही निकलता है कि भारत की संस्कृति स्वीकार्यता के सिद्धांत पर टिकी है। आज स्वामी विवेकानंद के भाषण के इस अंश को ब्लॉग में सम्मिलित करने का एक कारण है।

कुछ दिन पहले का मामला है, वामपंथी संगठनों द्वारा आयोजित भारत बंद के समर्थन में लखनऊ विश्वविद्यालय में विभिन्न छात्र संगठनों ने विश्वविद्यालय बंद का आह्वान किया। प्रदर्शन के दौरान आइसा और एबीवीपी कार्यकर्ताओं के बीच धक्का-मुक्की भी हुई। (पढ़ें खबर) आइसा कार्यकर्ता पूजा का आरोप है कि एबीवीपी कार्यकर्ताओं के सामने जब पूजा ने ‘हर लड़की है भारत माता’ के नारे लगाए तो जवाब में एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने सिक्के उछालते हुए ‘नाचो भारत माता’ के नारे लगाने शुरू कर दिए। किसी के साथ भी ऐसा व्यवहार करना पूरी तरह से गलत और निंदनीय है। यह मामला और ज्यादा गंभीर इसलिए हो जाता है क्योंकि एबीवीपी का दावा रहता है कि उनके कार्यकर्ता भारतीय संस्कृति के ‘संरक्षक’ हैं।

अपनी मां (भारत माता) को नाचने के लिए कहना, सिर्फ इसलिए एक लड़की का अपमान करना क्योंकि वह दूसरी विचारधारा से आती है, कहीं से भी नारी को देवी मानने वाली संस्कृति को प्रदर्शित नहीं करता। स्वामी विवेकानंद के स्वीकार्यता के सिद्धांत को ताक पर उन लोगों के द्वारा रखा जा रहा है जो स्वामी विवेकानंद को कथित तौर पर अपना आदर्श मानते हैं। जिसने भी ऐसा किया है उस पर संगठन के द्वारा भी और कानूनी रूप से भी कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। हालांकि जब लखनऊ विश्वविद्यालय में यह सब हो रहा था, उस दौरान वहां खड़े लोगों के मुताबिक एबीवीपी कार्यकर्ताओं की ओर से ‘नाचो भारत माता’ जैसे नारे नहीं लगाए गए थे लेकिन फिर भी यदि आरोप लगा है तो जांच तो होनी ही चाहिए।

लेकिन इसके साथ एक दूसरे पक्ष पर भी ध्यान देना चाहिए। पूजा की फेसबुक टाइमलाइन पर इस घटना को लेकर बड़ा बवाल मचा हुआ है। राष्ट्रवादी विचारधारा से जुड़े लोगों को संघी लंपट, संघी गुंडा, वानर, लड़की छेड़ने वाला इत्यादि संज्ञाओं से नवाजा जा रहा है। मैं फिर कह रहा हूं, जिसने भी ऐसी गंदी हरकत की है, उस पर कार्रवाई होनी चाहिए, एबीवीपी से ऐसे लोगों को लेकर जवाब मांगा जाना चाहिए लेकिन पूरी विचारधारा को गलत ठहरा देना कहीं से भी ठीक नहीं है।

एबीवीपी को छोड़ दीजिए, मैं राष्ट्रवादी विचारधारा से आता हूं और मुझे ऐसे शब्दों से आपत्ति है। इस आपत्ति का कारण भी है। इन्हीं वामपंथी संगठनों का झंडा लेकर, इनके ही द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में शामिल होकर कुछ ‘देशद्रोही’ लोग भारत की बर्बादी के नारे लगाते हैं। इस देश के वामपंथी एक सीमा तक उन लोगों का समर्थन भी करते हैं। लेकिन हम अपनी निष्पक्षता और सहिष्णुता दिखाते हैं और सभी वामपंथियों को देशद्रोही नहीं कहते।
इनके संगठन का एक महत्वपूर्ण दायित्वधारी कार्यकर्ता एक छात्रा का रेप करता है लेकिन हम हर एक वामपंथी को बलात्कारी नहीं कहते। इनके ‘बड़े’ लोग इस घटना पर शर्मिंदा होकर अपने अवॉर्ड नहीं वापस करते लेकिन हम इसे मुद्दा नहीं बनाते क्योंकि हम अपनी जिम्मेदारी और इनकी राजनीति समझते हैं। ये छात्रहित में विश्वविद्यालय में आंदोलन करते हैं, बहुत अच्छी बात है। इनके साथ कोई व्यक्ति कोई अवांछित हरकत करे , बहुत बुरी बात है। हम इनका पक्ष पूरी जिम्मेदारी के साथ समाज तक पहुंचाते हैं।

लेकिन ये लोग जब अपनी विचारधारा को केन्द्र में रखकर कोई पोस्ट लिखते हैं तब कोई विपक्षी विचारधारा का व्यक्ति अपनी विचारधारा के समर्थन में कॉमेन्ट करता है तो ये क्या करते हैं? ये उसे संघी लंपट, संघी गुंडा, वानर, लड़की छेड़ने वाले और न जाने कैसी कैसी संज्ञाएं देते हैं। गजब, सहिष्णुता है इनकी। भारत स्वीकार्यता के सिद्धांत पर टिका है। हम इनको स्वीकार करते हैं लेकिन ‘भारत की बर्बादी’ के नारे लगाने वालों और बलात्कार करने वालों का विरोध करते हैं।

स्वीकार्यता के सिद्धांत पर आधारित एक उदाहरण देता हूं। 2012 की बात है, इसी लखनऊ विश्वविद्यालय में बड़ी संख्या में छात्र-छात्राओं को फेल कर दिया गया था। विश्वविद्यालय का कहना था कि स्क्रूटनी के लिए 1400 रुपए प्रति कॉपी के हिसाब से जमा करना होगा और तब कॉपी दोबारा से जांची जाएगी। अब आप ही सोचिए, स्नातक का एक लड़का जो 10 में से 9 पेपर्स में फेल है वह इतना पैसा कहां से लाएगा और वह भी तब जब इस बात की कोई गारंटी ना हो कि कॉपी ठीक से चेक की जाएगी।

उस दौरान आरटीआई के तहत 10 रुपए में कॉपी दिखाने की मांग की गई। लेकिन विश्वविद्यालय ने इस मांग को मानने से इनकार कर दिया। इसके बाद सपा छात्रसभा और एनएसयूआई को छोड़कर एबीवीपी, आइसा, एसएफआई सहित सभी छात्र संगठनों ने एक नया मंच बनाया और पूरे 2 महीनों तक संघर्ष किया। आखिरकार छात्रहित में किए गए उस संघर्ष की जीत हुई और छात्रों को अगले वर्ष का परीक्षा फॉर्म भरने से ठीक 5 दिन पहले विश्वविद्यालय ने आरटीआई के तहत 10 रुपए में कॉपी दिखाने की मांग मान ली। हजारों की संख्या में छात्र पास हुए। यह होती है सहिष्णुता, यह होती है स्वीकार्यता।

स्वीकार्यता तो लानी ही होगी…आपको भी और उनको भी… मैं इस बात को जानता भी हूं और मानता भी हूं कि दोनों विचारधाराओं के सिद्धांत का आधार स्वीकार्यता ही है।

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