नवरात्र का पावन
पर्व चल रहा है। सनातन पूजा पद्धति में विश्वास रखने वाले सभी लोग विभिन्न
उपायों से मां भगवती को प्रसन्न करने में लगे हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं
कि नवदुर्गा के अलावा एक और दुर्गा थी जिसके शौर्य और पराक्रम से नारी के
शक्ति स्वरूपा होने का प्रमाण मिलता है। ऐसा समय और ऐसा स्थान, जहां
महिलाओं को घर से निकलने की भी अनुमति नहीं थी, वहां पुरानी परंपराओं को
तोड़कर दायित्वबोध और राज्य प्रेम को नए आयाम देने वाली रानी दुर्गावती की
अप्रतिम गाथा, भारतीय शौर्य परंपरा का एक मजबूत स्तंभ है।
1542 में दुर्गावती का विवाह गोंड
साम्राज्य के संग्राम शाह के बड़े बेटे दलपत शाह के साथ कराया गया। शादी के
कुछ वर्षों बाद दुर्गावती को वीर नारायण नामक पुत्ररूपी रत्न की प्राप्ति
हुई लेकिन इस खुशी को जल्द ही ग्रहण लग गया और राजा दलपत शाह की मृत्यु हो
गई। पति की मौत के बाद गोंड साम्राज्य पर आधिपत्य को लेकर चल रही राजनीति
की आहट पाकर रानी ने स्वयं को गोंडवाना की महारानी घोषित कर दिया। एक महिला
ने जब राज्य की सत्ता का संचालन अपने हाथों में लिया तो आसपास के राज्यों
के पुरुषवादी शासक काफी प्रसन्न हो गए। उनको आशा थी कि महिला होने के नाते
गोंड साम्राज्य पर कब्जा करने के लिए उन्हें ज्यादा संघर्ष नहीं करना
पड़ेगा।
vishva gaurav |
मालवा गणराज्य के शासक बाज बहादुर ने इसी
सोच के साथ गोंडवाना पर हमला किया लेकिन बाज बहादुर की सोच गलत साबित हुई
और उसे रानी दुर्गावती ने करारी शिकस्त दी। इस जीत के साथ ही रानी
दुर्गावती का यश चारों ओर फैल गया।
इसके कई सालों के बाद गोंडवाना के नजदीकी राज्य मणिकपुर के शासक ख्वाजा
अब्दुल मजिद आसफ खान ने रानी दुर्गावती पर आक्रमण करने का विचार बनाया।
तत्कालीन मुगल सम्राट अकबर की आज्ञा लेकर अब्दुल माजिद बड़ी फौज लेकर निकल
पड़ा। जब मुगल सेना, दमोह के नजदीक पहुंची तो मुगल सूबेदार ने रानी
दुर्गावती से अकबर की अधीनता स्वीकार करने को कहा। रानी दुर्गावती ने उसे
जवाब भिजवाते हुए कहा, ‘कलंक के साथ जीने से बेहतर गौरव के साथ मर जाना
होता है। मैंने लम्बे समय तक अपनी मातृभूमि की सेवा की है और अब इस तरह मैं
अपनी मातृभूमि पर धब्बा नहीं लगने दूंगी। अब युद्ध के अलावा कोई उपाय नही
है।’ रानी दुर्गावती ने तीन दिनों तक अकबर की सेना को धूल चटाई। चौथे दिन
उनका पुत्र राजा वीर घायल हो गया लेकिन रानी इस वेदना को भी झेल गईं।
24 जून 1564, रानी अब भी अदम्य शौर्य एवं
साहस का प्रदर्शन करते हुए बहादुरी के साथ लड़ रही थीं तभी अचानक एक तीर
रानी दुर्गावती की गर्दन के एक तरफ घुस गया। रानी ने वह तीर तो बाहर निकाल
दिया लेकिन उस जगह पर भारी घाव बन गया। इसी के तुरंत बाद एक और तीर उनकी
गर्दन के अंदर घुस गया जिसे भी रानी दुर्गावती ने बाहर निकाल दिया लेकिन
इसके बाद वह बेहोश हो गयीं। जब उन्हें होश आया तो पता चला कि उनकी सेना
युद्ध हार चुकी है। उन्होंने महावत से कहा, ‘मैंने हमेशा से तुम्हारा
विश्वास किया है और हर बार की तरह आज भी तुम्हारा सहयोग चाहिए। आज हार के
इस मौके पर तुम मुझे दुश्मनों के हाथ मत लगने दो और वफादार सेवक की तरह इस
तेज छुरे से मुझे खत्म कर दो।’
महावत ने कहा, ‘मैं अपने हाथों को आपकी
मौत के लिए उपयोग नहीं कर सकता। मैं बस आपको इस रणभूमि से बाहर निकाल सकता
हूं, मुझे अपने तेज हाथी पर पूरा भरोसा है।’ यह बात सुनकर रानी दुर्गावती
की आंखों में खून उतर आया।
वह नाराज हो गईं और बोलीं, ‘क्या तुम मेरे लिए ऐसे अपमान का चयन करते हो?
क्या तुम यह चाहते हो कि लोग कहें कि दुर्गावती रणभूमि छोड़ कर भाग गई थी?’
इसी के साथ रानी दुर्गावती ने चाकू निकाला और अपने पेट में घोंप लिया।
रानी दुर्गावती ने मध्य प्रदेश की वीरभूमि को अपने रक्त से सींचने में कोई
संकोच नहीं किया। दुर्गावती ने 16 सालों तक वीरों की तरह शासन करते हुए
भारतवर्ष के गौरवमयी इतिहास को एक नया आयाम प्रदान किया।
आज 5 अक्टूबर है, आज से 492 साल पहले 1524
में दुर्गावती ने जन्म लिया था। आज मैं रानी दुर्गावती पर इसलिए लिख रहा
हूं ताकि नारीवाद के नाम पर रिश्तों का मजाक उड़ाने वाले ‘प्रगतिशील’ वर्ग
के लोगों की कलम ‘नारीवाद’ का वास्तविक अर्थ बयां कर सके। भारत की इस वीर
बेटी की जयंती पर मैं बस इतना चाहता हूं कि देश की बेटियां यदि प्रेरणा लें
तो दुर्गावती जैसी महिलाओं से लें। रानी दुर्गावती के जैसा समर्पण और
दायित्वबोध, वर्तमान समय की ‘आधुनिक’ नारियों में नहीं पाया जाता।
रानी दुर्गावती को नमन!
No comments:
Post a Comment