Thursday 13 October 2016

महिलाओं को निखारे बिना पूजने का कोई अर्थ नहीं

मेरे घर में हर साल कोई ना कोई बड़ा धार्मिक अनुष्ठान होता है। अनुष्ठान का समापन कन्याभोज से ही होता है। कन्याभोज कार्यक्रम के दौरान कन्याओं के पैर धुलकर उनका पूजन करने और भोज के उपरांत पैर छूकर उन्हें दक्षिणा स्वरूप कुछ धन देने की परंपरा है। जब पहली बार कन्या पूजन और पैर छूकर दक्षिणा देने की जिम्मेदारी मुझे दी गई तो मुझे लगा कि अब मैं बड़ा हो गया हूं, क्योंकि उससे पहले यह काम मेरे पिता जी करते थे। उस समय मैं कक्षा 5 में पढ़ता था। कन्या पूजन से ठीक पहले मैंने देखा कि वहां पर मेरे ही विद्यालय में मेरे साथ पढ़ने वाली कुछ कन्याएं हैं। बाल मन था, पता नहीं क्या सोचकर मैं भागकर अपने बाबा जी के पास गया और उनसे कहा, ‘मैं उनके चरण स्पर्श नहीं करूंगा क्योंकि उनमें से बहुत सी लड़कियां मुझसे छोटी हैं और मेरे ही विद्यालय में पढ़ती हैं। अगर मैं उनके चरण स्पर्श करूंगा तो बाद में वे विद्यालय में मेरा मजाक उड़ाएंगी।’ मेरे बाबा जी ने मुझे घूरकर देखा और कहा, ‘जितना कहा जा रहा है उतना करो।’ आखिरकार मैंने वह सब कुछ किया जो कहा गया। उसी रात मेरे बाबा जी ने मुझे अपने पास लिटाया और कहा कि कन्याएं मां सरस्वती का रूप होती हैं, उनका पूजन करने से तुम्हारे ज्ञान में वृद्धि होगी इसलिए आगे से कभी इन चीजों पर सवाल मत उठाना। मैंने भी उनकी बात सुनी और उसे उसी रूप में मान लिया।

ऐसी बातें और ऐेसे विचार भारत के लगभग हर एक परिवार में होते हैं। लेकिन इसके साथ एक और पहलू भी है जिसे हम इस पहलू के चलते नकार नहीं सकते। मेरे एक मित्र एनजीओ चलाते हैं। उन्होंने 2016 के लिए कार्यक्रम तय किया था कि गांवों में जाकर लोगों के साथ मिलकर भोजन बनाएंगे और फिर उन्हीं के साथ खाएंगे। इसी कार्यक्रम के तहत मेरा भी जनवरी 2016 में उत्तर प्रदेश के एक गांव में जाना हुआ। वहां जिस परिवार में भोजन तय हुआ था, उसमें एक लगभग 13 साल की बच्ची थी। मैंने उस बच्ची से पूछा, ‘बाबू, आप किस क्लास में पढ़ते हो।’ उसने बताया कि वह कक्षा 6 में पढ़ती है। लेकिन हैरान करने वाली बात यह थी कि वहीं पर बैठे एक ग्राम पंचायत सदस्य ने उस बच्ची की बात पूरी होते-होते कहा, ‘भाईसाहब, इनको पढ़ने की क्या जरूरत है? 3-4 साल में शादी हो जाएगी और फिर घर में जाकर खाना ही तो बनाना है।’ इसके बाद उन महाशय से काफी लंबी बहस हुई लेकिन उनकी इस एक लाइन ने मेरे सामने सवाल खड़ा कर दिया कि जिस कन्या के पूजन से हमारी अपेक्षा रहती है कि हमें ज्ञान मिलेगा, उस कन्या को ज्ञान और शिक्षा से दूर रखना कहां तक ठीक है?
अभी 3 दिन पहले दुर्गाष्टमी का पर्व बीता। मैं जहां रहता हूं, वहां रहने वाले लोग दुर्गाष्टमी की सुबह पूजन के लिए कन्याओं के लिए खोज रहे थे। समस्या इस तरह के दोहरे रवैये से है। लड़कियों को गर्भ में मार देना, उन्हें पढ़ने से रोकना, उन्हें उनके मन मुताबिक कपड़े ना पहनने देना, उन्हें उनके मन मुताबिक शादी ना करने देना और फिर सड़क पर पूजन के लिए उन्हें ही खोजना। कैसा समाज बनाकर रख दिया है हमने। परिवार में जब कोई महिला गर्भवती होती है तो परिवार के सभी सदस्य ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि श्रीराम जैसा पुत्र जन्म ले लेकिन कभी इस बात के लिए प्रार्थना नहीं करते कि सीता जैसी बेटी जन्म ले।

vishwa gaurav
हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जहां पर यदि एक व्यक्ति की किसी दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है तो उसकी पत्नी को डायन कहकर जिंदा जला दिया जाता है। एक महिला पर डायन होने का आरोप लगाकर उसे निवस्त्र करके पूरे गांव में घुमाया जाता है। कल तक जो कन्या मां सरस्वती और मां लक्ष्मी का रूप थी, महिला बनते ही वह डायन बन गई। गजब की थिअरी है आपकी। एक व्यक्ति अगर किसी की हत्या करके भाग जाता है तो उसकी बेसहारा पत्नी को 2 बच्चों के साथ गांव से निकाल दिया जाता है। एक आदमी के कुकर्मों की सजा उसकी पत्नी को देना कहां तक उचित है? और यह सब उस देश में हो रहा है, जिसकी सनातन परंपरा में माता सीता के साथ-साथ रावण की पत्नी मंदोदरी को भी पंच कन्याओं में रखा गया है।

एक लड़की शादी के बाद अपना घर, माता-पिता, भाई-बहन यहां तक कि अपने सपने, अपना भविष्य भी अपने ससुराल वालों के लिए छोड़ देती है। वह पूरा दिन घर में काम करती है, उसके लिए उसे कोई पैसे नहीं मिलते और वह पैसों की कोई कामना भी नहीं रखती। वह हर सांचे में खुद को ढाल लेती है। वह शादी के बाद अपने ससुराल वालों के रंग-ढंग में रच-बस जाती है। और वह ये सब कुछ अपने एक पुरुष, सिर्फ एक पुरुष की खुशी के लिए करती है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर किसी पुरुष या लड़के को अपने परिवार को, अपने सपनों को छोड़ने के लिए कहा जाए तो क्या वह छोड़ देगा? यह कदाचित संभव नहीं है। वह ऐसा कभी भी नहीं करेगा।

लोगों का तर्क होता है कि एक लड़की अपने वंश को आगे नहीं बढ़ा सकती। क्या एक पुरुष बिना किसी महिला के अपने वंश को आगे बढ़ा सकता है? जब वह छोटी होती है तो माता-पिता सोचते हैं कि इसे पढ़ाने-लिखाने में पैसा खर्च करने का कोई फायदा नहीं क्योंकि इसे तो शादी करके ससुराल ही जाना है। वहां अपना घर बसाना है। शादी के बाद भी उसे दहेज न लाने पर या कम दहेज लाने पर मारा-पीटा जाता है। उसके साथ जानवरों से भी बुरा बर्ताव किया जाता है। यहां तक कि उसे जान से भी मार दिया जाता है और अगर वह पढ़-लिख भी जाए तब भी इस समाज ने उनके लिए कुछ सीमाएं निर्धारित कर दी हैं। उन्हें उस सीमा में ही रहना पड़ता है। आखिर क्यों हमेशा एक लड़की या एक औरत को ही अपना सब कुछ त्याग देना पड़ता है?

हम क्यों महिलाओं की क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाकर मूकदर्शक बन जाते हैं। हम क्यों भूल जाते हैं कि जब एक महिला राजसत्ता के संचालन का संकल्प लेती है तो रानी लक्ष्मीबाई बनकर विदेशी आक्रांताओं के छक्के छुड़ा देती है, जब वह सेवा करने पर आती है तो सेवा की प्रतिमूर्ति बनकर मदर टेरेसा के नाम से प्रख्यात हो जाती है, जब वह राजनीति करने पर आती है तो इंदिरा गांधी बनकर शेरनी की तरह वह कर जाती है जिसकी उस समय तक कोई पुरुष नेता कल्पना भी नहीं कर सकता था, जब वह गीत गाने पर आती है तो सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर बन जाती है, जब वह बैडमिंटन का रैकेट उठाती है तो साइना नेहवाल बनकर पूरे विश्व में भारत का नाम रोशन कर देती है और जब वह दौड़ने पर आती है तो मैरीकॉम बनकर इतना दौड़ती है कि पुरुषार्थ की नई परिभाषा गढ़ जाती है।

अरे छोड़िए सब, इसी साल कुछ समय पहले ओलिंपिक में एक मेडल के लिए जब भारत तरस रहा था तो वे देश की बेटियां ही थीं जिन्होंने भारत की झोली में मेडल डाले। उनके लिए इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे शारीरिक रूप से दिव्यांग हैं। हमें उनके हौसले को नमन करना चाहिए और उनकी योग्यता, क्षमता और प्रतिभा को निखारने में जितना योगदान दे सकते हैं, देना चाहिए। विश्वास मानिए, अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो कन्या पूजन का कोई अर्थ नहीं और ना ही नवरात्र का।

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