‘प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे किसी ना किसी महिला का हाथ जरूर होता है।’
यह बात आपने भी अपने जीवन में सुनने के साथ-साथ महसूस की होगी। वह महिला
आपकी मां, बहन, पत्नी, प्रेमिका या कोई अन्य भी हो सकती है। कोई भी पुरुष
यह नहीं कह सकता कि उसने अपने जीवन में जितना भी अर्जित किया है, उसमें
किसी महिला का योगदान नहीं है, क्योंकि उस पुरुष की उत्पत्ति का आधार ही
महिला है। जिसने भी इस ‘कहावत’ को सर्वप्रथम कहा होगा उसके मन में सफल
पुरुष की सफलता के पीछे जिस महिला का त्याग, बलिदान और साहस रहा होगा, उसे
प्रणाम करने की कल्पना रही होगी। लेकिन क्या एक महिला की सफलता के पीछे
पुरुष का कोई योगदान नहीं होता?
अजीब सा सवाल है ना? यदि आप एक पुरुष हैं तो आप तत्काल कह देंगे,
‘बिल्कुल, महिला की सफलता के पीछे पुरुष का ही हाथ होता है।’ लेकिन क्या
महिलाएं भी ऐसा ही सोचती हैं? क्या महिलाएं भी ‘हां’ में इस प्रश्न का
तत्कालिक उत्तर दे सकती हैं? मुझे नहीं लगता…मेरी सोच ऐसी क्यों बनी, उसका
कारण मेरा अपना एक अनुभव है।
कुछ दिन पहले ‘नव चेतना’ नामक एक वर्कशॉप को अटेंड करने का मौका मिला। उस वर्कशॉप के ट्रेनर ने स्टिकी नोट्स पर कुछ लड़कों को यह लिखने को कहा कि लड़कियां कैसी होती हैं और लड़कियों से लिखने को कहा कि वे लिखें कि लड़के कैसे होते हैं। लड़कों में से लगभग सभी ने लिखा कि लड़कियां भावुक होती हैं, काफी मजबूत होती हैं, सहनशील होती हैं… इत्यादि… बात भी सही है, एक लड़की/महिला के बराबर संवेदनाएं एक ‘सामान्य’ पुरुष में नहीं हो सकतीं। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जन्म के बाद जो महिला सबसे पहले मेरे संपर्क में आई, वह मेरी मां थी। एक महिला के बारे में सोचने पर सबसे पहले मेरे मन में मेरी मां का चेहरा आता है। मेरे सिर पर जब जरा सी चोट लगती थी तो मैंने उनकी आंखों में आंसू देखे हैं, पापा से उन्हें मेरी अपनी गलतियों के लिए लड़ते देखा है। आज अधिकतर पुरुषों के मन में एक महिला के बारे में सोचने पर पहला चित्र अपनी मां का ही आता होगा।
लेकिन इसके विपरीत उसी वर्कशॉप में अधिकतर महिलाओं ने पुरुषों के बारे में जो लिखा वह वास्तव में आश्चर्यचकित करने वाला था। किसी ने पुरुषों को अहंकारी बताया, तो किसी ने कहा कि पुरुष भरोसे के लायक नहीं होते। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो मुझे लगता है कि किसी महिला का पिता तो उसके लिए अहंकारी नहीं हो सकता, एक पिता तो उसके भरोसे को नहीं तोड़ सकता, तो फिर ऐसे विचार क्यों?
ये विचार अनायास ही नहीं बने। महिलाओं ने अपने बॉयफ्रेंड, पति या अन्य किसी में जिस पुरुष को देखा है, उसी के आधार पर अपने मानसपटल पर पुरुष के व्यवहार की एक छवि बना ली। हो सकता है कि किसी पुरुष ने उस महिला का विश्वास तोड़ा हो, हो सकता है किसी ने उसका सम्मान न किया हो लेकिन सिर्फ एक व्यक्ति विशेष के व्यवहार के कारण संपूर्ण पुरुष जाति के व्यवहार को वैसा ही मान लेना क्या ठीक होगा?
आज कहा जाता है कि समाज बदल रहा है, अब महिलाएं घर की चहारदीवारी लांघकर हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही हैं, पर इसके पीछे इस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है कि इस परिवेश के बदलाव का एक मुख्य कारण पुरुषों की सोच में परिवर्तन भी है। वैदिक काल के बाद से भारत के लोगों ने जिस तरह से स्त्री को लेकर अपनी सोच को अधोगामी बनाया, उस सोच के दायरे से बाहर निकल कर एक सकारात्मक परिवर्तन यदि हमें दिखाई दे रहा है तो उसके पीछे पुरुषों की मानसिकता में बदलाव और महिलाओं का साहस है। पुरुषों की मानसिकता नहीं बदली होती तो महिलाओं का घर से बाहर निकलना, अपनी व्यक्तिगत पहचान को समाज में प्रतिस्थापित करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होता।
हमें इस बात को मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि समाज के परंपरागत रिवाजों को तोड़कर पुरुष ने भी स्त्री को इस बात का अहसास कराया कि जो हम कर सकते हैं, वह तुम भी कर सकती हो। निश्चित रूप से आज भी बहुत से लोग इस परिवर्तन को स्वीकार करने की मानसिकता नहीं रखते लेकिन ऐसे लोगों में सिर्फ पुरुष नहीं आते, बहुत सी महिलाएं भी हैं जो आज भी कहती हैं कि लड़कियों को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए। लेकिन उन्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। क्योंकि अगर उनको कुछ कह दिया तो ‘नारीवादी’ होने का तमगा छिन जाएगा। महिलाओं के प्रति पुरुषों के समर्पण को अनदेखा किया जाएगा, क्योंकि अगर पुरुषों के लिए कुछ अच्छा कह दिया तो ‘पुरुषवादी’ होने का ठप्पा लग जाएगा।
नारीवादी होना, क्या भेदभाव को बढ़ावा देना नहीं है? यदि वास्तव में हम लिंगभेद को नहीं मानते तो ‘नारीवादी’ और ‘पुरुषवादी’ जैसे शब्दों को क्यों बड़े गर्व के साथ अपने चरित्र का बखान करने में उपयोग करते हैं? अगर हम यह कहते हैं कि ‘प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे किसी ना किसी महिला का हाथ जरूर होता है’ तो आखिर क्यों हम यह भी नहीं कह सकते कि ‘प्रत्येक सफल महिला के पीछे भी किसी ना किसी पुरुष का हाथ जरूर होता है’? एक बार इन सवालों के जवाब सोचने का प्रयास जरूर करिएगा…
vishwa gaurav |
कुछ दिन पहले ‘नव चेतना’ नामक एक वर्कशॉप को अटेंड करने का मौका मिला। उस वर्कशॉप के ट्रेनर ने स्टिकी नोट्स पर कुछ लड़कों को यह लिखने को कहा कि लड़कियां कैसी होती हैं और लड़कियों से लिखने को कहा कि वे लिखें कि लड़के कैसे होते हैं। लड़कों में से लगभग सभी ने लिखा कि लड़कियां भावुक होती हैं, काफी मजबूत होती हैं, सहनशील होती हैं… इत्यादि… बात भी सही है, एक लड़की/महिला के बराबर संवेदनाएं एक ‘सामान्य’ पुरुष में नहीं हो सकतीं। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जन्म के बाद जो महिला सबसे पहले मेरे संपर्क में आई, वह मेरी मां थी। एक महिला के बारे में सोचने पर सबसे पहले मेरे मन में मेरी मां का चेहरा आता है। मेरे सिर पर जब जरा सी चोट लगती थी तो मैंने उनकी आंखों में आंसू देखे हैं, पापा से उन्हें मेरी अपनी गलतियों के लिए लड़ते देखा है। आज अधिकतर पुरुषों के मन में एक महिला के बारे में सोचने पर पहला चित्र अपनी मां का ही आता होगा।
लेकिन इसके विपरीत उसी वर्कशॉप में अधिकतर महिलाओं ने पुरुषों के बारे में जो लिखा वह वास्तव में आश्चर्यचकित करने वाला था। किसी ने पुरुषों को अहंकारी बताया, तो किसी ने कहा कि पुरुष भरोसे के लायक नहीं होते। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो मुझे लगता है कि किसी महिला का पिता तो उसके लिए अहंकारी नहीं हो सकता, एक पिता तो उसके भरोसे को नहीं तोड़ सकता, तो फिर ऐसे विचार क्यों?
ये विचार अनायास ही नहीं बने। महिलाओं ने अपने बॉयफ्रेंड, पति या अन्य किसी में जिस पुरुष को देखा है, उसी के आधार पर अपने मानसपटल पर पुरुष के व्यवहार की एक छवि बना ली। हो सकता है कि किसी पुरुष ने उस महिला का विश्वास तोड़ा हो, हो सकता है किसी ने उसका सम्मान न किया हो लेकिन सिर्फ एक व्यक्ति विशेष के व्यवहार के कारण संपूर्ण पुरुष जाति के व्यवहार को वैसा ही मान लेना क्या ठीक होगा?
आज कहा जाता है कि समाज बदल रहा है, अब महिलाएं घर की चहारदीवारी लांघकर हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही हैं, पर इसके पीछे इस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है कि इस परिवेश के बदलाव का एक मुख्य कारण पुरुषों की सोच में परिवर्तन भी है। वैदिक काल के बाद से भारत के लोगों ने जिस तरह से स्त्री को लेकर अपनी सोच को अधोगामी बनाया, उस सोच के दायरे से बाहर निकल कर एक सकारात्मक परिवर्तन यदि हमें दिखाई दे रहा है तो उसके पीछे पुरुषों की मानसिकता में बदलाव और महिलाओं का साहस है। पुरुषों की मानसिकता नहीं बदली होती तो महिलाओं का घर से बाहर निकलना, अपनी व्यक्तिगत पहचान को समाज में प्रतिस्थापित करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होता।
हमें इस बात को मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि समाज के परंपरागत रिवाजों को तोड़कर पुरुष ने भी स्त्री को इस बात का अहसास कराया कि जो हम कर सकते हैं, वह तुम भी कर सकती हो। निश्चित रूप से आज भी बहुत से लोग इस परिवर्तन को स्वीकार करने की मानसिकता नहीं रखते लेकिन ऐसे लोगों में सिर्फ पुरुष नहीं आते, बहुत सी महिलाएं भी हैं जो आज भी कहती हैं कि लड़कियों को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए। लेकिन उन्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। क्योंकि अगर उनको कुछ कह दिया तो ‘नारीवादी’ होने का तमगा छिन जाएगा। महिलाओं के प्रति पुरुषों के समर्पण को अनदेखा किया जाएगा, क्योंकि अगर पुरुषों के लिए कुछ अच्छा कह दिया तो ‘पुरुषवादी’ होने का ठप्पा लग जाएगा।
नारीवादी होना, क्या भेदभाव को बढ़ावा देना नहीं है? यदि वास्तव में हम लिंगभेद को नहीं मानते तो ‘नारीवादी’ और ‘पुरुषवादी’ जैसे शब्दों को क्यों बड़े गर्व के साथ अपने चरित्र का बखान करने में उपयोग करते हैं? अगर हम यह कहते हैं कि ‘प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे किसी ना किसी महिला का हाथ जरूर होता है’ तो आखिर क्यों हम यह भी नहीं कह सकते कि ‘प्रत्येक सफल महिला के पीछे भी किसी ना किसी पुरुष का हाथ जरूर होता है’? एक बार इन सवालों के जवाब सोचने का प्रयास जरूर करिएगा…
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