आपको क्या लगता
है कि आपके भगवान या खुदा ने धर्म (पूजा पद्धतियां) या जातियां बनाई हैं,
वो भी सिर्फ इसलिए ताकि लोगों के बीच संबन्ध न बन सकें? यानी अगर आप हिंदू
हैं और आपने मुस्लिम से शादी कर ली तो आपका भगवान आपसे नाराज हो जाएगा,
मुस्लिम हैं और हिंदू से निकाह कर लिया तो खुदा नाराज हो जाएगा, ब्राह्मण
परिवार में जन्म लेकर यदि कायस्थ परिवार में शादी की तो आपका ईश्वर आपको
‘भयानक’ कष्ट देगा? आप सोच रहे होंगे कि मैं आज ये कौन सी बातें लेकर बैठ
गया। चलिए बताता हूं….
मेरा एक पत्रकार मित्र है। कुछ महीनों पहले उससे काम के दौरान गलतियां हुईं। कभी कोई समाचार लिखते समय कोई भाषागत गलती हो जाती तो कभी संस्थान के ऑफिशल अकाउंट से कुछ गलत ट्वीट हो जाता। चूंकि उसे मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं इसलिए पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूं कि उसकी योग्यता, क्षमता और प्रतिभा में कोई कमी नहीं है। फिर ऐसी गलतियां उससे क्यों हो जाती हैं?
जब मैं स्नातक की पढ़ाई कर रहा था उस समय का भी एक किस्सा ध्यान में आता है। मेरी एक जूनियर जो कि ब्राह्मण परिवार की थी, उसे एक क्षत्रिय लड़के से ‘प्यार’ था। घरवालों ने इस रिश्ते को मंजूरी नहीं दी तो वह लड़की भागकर लड़के के घर चली गई। लड़के के घरवालों ने उसे स्वीकार कर लिया लेकिन लड़की के घरवालों ने हमेशा के लिए उससे रिश्ता खत्म कर दिया। लगभग 1 साल के बाद उन दोनों के रिश्ते में खटास आ गई और वह रिश्ता खत्म हो गया। लड़की फिर से अपने घर आ गई और लड़की के प्रति प्यार के चलते परिवार को उसे स्वीकार करना पड़ा।
इन दो उदाहरणों को पढ़कर आप किस निष्कर्ष पर पहुंचे? पता नहीं आप क्या सोच रहे हैं लेकिन क्या एक 18 साल की लड़की और लगभग इसी उम्र का लड़का अपने जीवन और भविष्य का निर्णय ले सकता है? क्या उसका मस्तिष्क इतना विकसित हो चुका है कि वह ‘प्यार’ और ‘आकर्षण’ के अंतर को समझ सके?या एक लड़का जिसकी उम्र 26 साल है, जो पिछले 3-4 साल से पत्रकारिता कर रहा है, समाज के बीच रह रहा है, आप उसकी भावनाओं को भी आकर्षण मान लेंगे? किसी का मस्तिष्क पूर्ण रूप से विकसित हो गया है, इसकी प्रमाणिकता उसकी उम्र तय नहीं करती। बल्कि उसकी सामाजिक स्थिति बताती है कि वह किसी रिश्ते और उस रिश्ते के भविष्य के प्रति कितना जागरुक है।
यह तो एक पक्ष था। दूसरा पक्ष है जाति और धर्म का। इस विषय पर बात करने से पहले एक सवाल है कि राम तो क्षत्रिय थे, लेकिन माता सीता की जाति क्या थी? मैं यह सवाल इसलिए पूछ रहा हूं कि बात उन परंपराओं की हो रही है जो लंबे समय से चली आ रही हैं तो सवाल भी उसी पौराणिक इतिहास से उठाना चाहिए। वाल्मीकि रामायण के मुताबिक, मिथिला के राजा जनक को खेत जोतते समय एक बच्ची मिली, जनक ने उन्हें धरती माता की पुत्री मानकर पाला-पोसा और बाद में उनका विवाह राम के साथ हुआ।
जिन्हें प्रत्येक जाति के लोग आराध्य मानते हैं, जब उन्होंने अपने विवाह में जातिगत भेद को स्थान नहीं दिया तो फिर हम एक सामान्य मनुष्य होकर, उन्हीं राम के वंशज होकर कैसे जातिभेद को अपने जीवन में स्थान दे सकते हैं? जाति और धर्म हमने बनाए हैं, लेकिन अगर हमारी ही बनाई किसी परंपरा से समाज टूट रहा है तो समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए हमें उन परंपराओं को तत्काल प्रभाव से समाप्त कर देना चाहिए।
लेकिन ये कौन लोग हैं जो प्रेम जैसी शाश्वत अनुभूति की आड़ में किसी की धार्मिक भावनाओं के साथ खेलते हैं? इस सवाल का कोई पुख्ता जवाब आज तक नहीं मिल पाया। मैं इस बहस में नहीं जाना चाहता कि ‘लव जिहाद’ जैसा कुछ होता भी है या नहीं लेकिन क्या देश की सबसे कठिन परीक्षा कही जाने वाली यूपीएससी की परीक्षा के 2 टॉपर्स यदि धार्मिक विभेद को मिटाकर समाज को एक संदेश देना चाहें तो क्या इसे ‘लव जिहाद’ का नाम देना ठीक होगा?
क्या दो लोग अपनी मर्जी से शादी के बंधन
में नहीं बंध सकते? और वे सामान्य लोग नहीं हैं, वे दोनों अपनी बुद्धि,
योग्यता और प्रतिभा के बल पर इस बात को प्रमाणित कर चुके हैं कि उन्हें
‘धर्म’ का झंडा लेकर चलने वालों से ‘भारत’ की लाख गुना ज्यादा समझ है।
यह दर्द सिर्फ इसलिए है क्योंकि उनको धर्म
और मजहब के बीच की खाईं को और गहरा करके अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी
हैं। अगर प्रेम की प्रतिमूर्ति श्रीकृष्ण के देश में कोई यह कहता है कि दो
अलग-अलग पूजा पद्धतियों को मानने वाले लोग विवाह नहीं कर सकते, तो एक बात
तो तय है कि जिस ‘भगवान’ की सेवा के नाम पर वे यह सब कर रहे हैं, उसे मैं
‘भगवान’ नहीं मान सकता क्योंकि मेरा भगवान कभी ‘जातिवादी’ और ‘सांप्रदायिक’
नहीं हो सकता।
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