आज जिस विषय पर लिखने जा रहा हूं, इसपर लिखने के लिए कई बार सोचा लेकिन यह विषय इतना बोझिल लगता था कि हर बार विचार को मस्तिष्क तक ही सीमित रहने दिया। लेकिन आज किसी ने आग्रह किया कि इसपर आपका मत क्या है, वह जरूर बताइए। पहले थोड़ी भूमिका- साल 2017 में मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। मैं इसे करने के पक्ष में नहीं था लेकिन फिर मुझे बताया गया कि कोई भी शुभ कर्म बिना इसके फलित नहीं होता। अब चूंकि विवाह करना था और उसे फलित भी करना था तो लगभग मजबूरी में कुछ घंटों में ‘यज्ञोपवीत’ हो गया। मैं इसके पक्ष में क्यों नहीं था, इसपर चर्चा बाद में करेंगे, पहले यह बताना जरूरी है कि मैं नियमित तौर पर यज्ञोपवीत धारण नहीं करता। विवाहोपरांत जब इसे धारण करना बंद किया तो मेरे बाबाजी बहुत नाराज हुए। बीते लगभग 15 वर्षों में मेरे बाबाजी ने यदि मेरे किसी फैसले पर आपत्ति की है तो वह यही है कि मैं यज्ञोपवीत धारण नहीं करता। वह मुझे वामपंथी, अंग्रेज… और भी ना जाने क्या-क्या कहते हैं। मेरे मन में भी कई बार आता है कि 6 धागों का एक समूह ही तो धारण करना है, उनकी खुशी के लिए कर लेते हैं, लेकिन उसके तुरंत बाद मन में एक प्रश्न यह भी उठता है कि किसी अपने की खुशी के लिए क्या हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा प्रतिपादित नितांत वैज्ञानिक परंपराओं को सिर्फ दिखावे के लिए स्वीकार करना क्या उनका ’अपमान’ नहीं होगा?
शास्त्रवचन है- 'जन्मना जायते शूद्रः संस्कारवान् द्विज उच्यते ॥' (स्कन्द 6.239.31)
स्कन्दपुराण में षोडशोपचार पूजन के अंतर्गत अष्टम् उपचार में ब्रह्मा द्वारा नारद को बताया गया है। जन्म से (प्रत्येक) मनुष्य शूद्र, संस्कार से द्विज बनता है। माना जाता है कि उपनयन संस्कार के बाद व्यक्ति का दूसरा जन्म होता है। उपनयन’ का अर्थ है, ‘पास या सन्निकट ले जाना।’ किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। वेदाध्ययन के लिए जब बालक गुरु के सन्निकट जाता है, तब वह पूर्ण रूप से परिवार का मोह त्यागकर सिर्फ शिक्षा के लिए, ज्ञान के लिए ‘जनेऊ’ धारण करता है। यह जनेऊ उसे उसके संकल्प को स्मरण रखने में मदद करता है। यह संकल्प क्या होता है? यज्ञोपवीत (जनेऊ) की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का एक संकल्प चाहिए।
-चार वेद
-चार उपवेद
-छह अंग
-छह दर्शन
-तीन सूत्रग्रंथ
-नौ अरण्यक सहित कुल 32 विद्याएँ होती है।
सोशल मीडिया पर कई बार मैंने देखा कि अलग-अलग ग्रंथों का संदर्भ देते हुए यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है कि ‘जनेऊ’ ना धारण किया तो हिंदू कैसे हुए, ब्राह्मण कैसे हुए, धर्म का ज्ञान कैसे देने लगे? ऐसे अन्य कई अनर्गल प्रलाप लगातार चलते रहते हैं। तो आइए, आज ग्रंथों के संदर्भ के साथ ही बात करते हैं।
उपनयन संबंधी आयु निर्धारण के संबंध में यद्यपि वैदिक संहिताओं में कोई उल्लेख नहीं मिलता, किंतु गृह्यसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में इसका स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। इन ग्रंथों के मुताबिक, अधिकतम 12 वर्ष तक यज्ञोपवीत हो जाना चाहिए, यानि अधिकतम् 12 वर्ष की आयु तक आते-आते वेदाध्ययन प्रारंभ हो जाना चाहिए, सिर्फ धागों के एक समूह को जनेऊ समझने वाले बताएं कि उनका यज्ञोपवीत किस आयु में और किस उद्देश्य के साथ हुआ था!
पद्म पुराण के कौशल खण्ड में आया है:
कोटि जन्मार्जितं पापं ज्ञानाज्ञान कृतं च यत् ।
यज्ञोपवीत मात्रेण पलायन्ते न संशयः ।।
अब इसकी व्याख्या कुछ ऐसे की जाती है- करोड़ों जन्म के ज्ञान-अज्ञान में किये हुए पाप यज्ञोपवीत धारण करने से नष्ट हो जाते हैं, इसमें किसी तरह का संशय नहीं है।
जबकि इसका वास्तविक अर्थ है कि यदि कोई वेदाध्ययन करे, ज्ञान अर्जित करे तो करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं।
देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तर्षयस्तपसे ये निषेदुः ।
भीमा जग्या ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धा दधाति परमे व्योयम् ।।
(ऋग्वेद 10।109।4)
आपस्तम्ब गृह्यसूत्र के अनुसार, उपनयन संस्कार केवल उन्हीं व्यक्तियों के लिए आवश्यक था, जो कि गुरुजनों के आश्रम में जाकर उनके सानिध्य में रहकर ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए गुरुमुख से वैदिक विद्याओं को प्राप्त करना चाहते थे। इसमें प्रत्येक वैदिक शाखा के अध्ययन के लिए उपनयन का पृथक्-पृथक् विधान हुआ करता था। अतः उपनयन उन लोगों के लिए अनिवार्य नहीं था, जो कि गुरुओं के आश्रमों में जाकर उनके नैकट्य में रहते हुए वेदाध्ययन के इच्छुक नहीं होते थे।
एक आसान उदाहरण से समझाता हूँ। प्राणायाम करना सेेहत के लिए बहुत लाभदायक होता है, लेकिन यदि भोजन के तुरंत बाद प्राणायाम करेंगे तो पेट दर्द, गैस, और एसिडिटी जैसी समस्याएं होने लगेंगी। यही चीज भारतीय परंपराओं के साथ भी है। वैसे सभी परंपराओं की बात करेंगे तो विषय बहुत लंबा हो जाएगा। सीधे-सीधे यज्ञोपवीत पर बात करते हैं और एक बहुत सामान्य से उदाहरण से समझते हैं।
अंत में एक बात और, हर संस्कार के लिए एक समय सुनिश्चित है। गर्भाधान संस्कार जन्म के 10 वर्ष बाद नहीं हो सकता। विवाह संस्कार 70 वर्ष की आयु में नहीं हो सकता। अंतिम संस्कार व्यक्ति के जीवित रहते नहीं हो सकता। फिर उपनयन संस्कार कभी भी, किसी भी आयु में क्यों करना चाहिए? क्या यह उस संस्कार विशेष का अपमान नहीं है?
1 comment:
आपसे सहमत हूँ भारतीय परम्परा देश, काल, परिस्थिति से सामंजस्य की ही है यहाँ विरोध नहीँ बल्कि सामनजस्य का प्रयास सभी ऒर दिखता है, अनेक में हुआ और लोक प्रतिष्ठित भी है.. 💥
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